बेचैनी बढ़ रही धरा की,
पशु-पक्षी बेहाल
सूरज बाबा सजा रहे हैं,
अंगारों का थाल
दिखते नहीं आजकल हमको,
बरगद, पीपल, नीम
आँगन छोड़, घरों में बालक,
देखें छोटा भीम
आये बौने पेड़ विदेशी,
फैलाने जंजाल
सूख गया पानी नदियों का,
फुल हैं स्विमिंग पूल
नहरें पूछ रही बांधों से,
गए हमें क्यों भूल
पाट दिए दाऊ-दादा ने,
नदिया, पोखर, ताल
''मौलिक एवं अप्रकाशित''
टुकुर-टुकुर देखे गौरैया,
कहीं न दिखती छाँव
छानी तरस रही कब से,
सुनने कागा की काँव
मुश्किल से ही दिख पाते अब,
गाय और गोपाल
Comment
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आपका तहे दिल से शुक्रिया
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी आपका तहे दिल से शुक्रिया
वाह आदरणीय शर्मा जी बेहतरीन गीत हुआ..बधाई
आ. भाई बसंत जी , सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
आपकी बारीक़ नजर को सलाम , कर दिया सर जी
टाइटल में 'थल' को "थाल" कर लें ।
आदरणीय vijay nikore जी, आपको रचना पसंद आई, आपका दिल से शुक्रिया
रचना अच्छी लगी। बधाई।
आदरणीय समर कबीर जी आपकी हौसला अफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,बहुत अच्छी रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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