गर्म होती जा रहीं है,
शहर में पागल हवाएँ.
क्या पता इन बस्तियों में,
कब पटाखे फूट जाएँ.
ढूँढता अस्तित्व अपना,
सच बहुत बेचैन है.
डस रहा है दिन उसे तो,
काटती अब रैन है.
डस्टबिन में जा चुकी हैं,
बुद्ध की जातक कथाएँ.
मात्र कहने के लिए है,
चेहरों पर मुस्कुराहट.
दूर से करते नमस्ते,
द्वार पर दिल के न आहट.
मंदिरों में भीड़ तो है,
हैं नहीं आराधनाएँ.
हर चुनावी साल में बस,
वायदों की बीन बजती.
रोटियों की कशमकश में,
जिन्दगी यूँ ही गुजरती.
पंख खुलने ही न देतीं,
ढेर सारी वर्जनाएँ.
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी आपका ह्रदय
से आभार
आद0 बसन्त कुमार शर्मा जी सादर अभिवादन। वर्तमान हालात पर बेहतरीन गीत सृजन के लिए बधाई देता हूँ। सादर
आदरणीय बासुदेव अग्रवाल जी आपका ह्रदय से आभार सुझाव के लिए
आ0 बसन्त कुमार जी अच्छी व्यंग रचना।
एक सुझाव
'हर चुनावी साल में बस
बीन वादों की है बजती
आदरणीय Samar kabeer जी का आभार
ठीक है भाई ।
आदरणीय Samar kabeer जी, हर चुनावी साल में अच्छे दिनों की बीन बजती , ठीक रहेगा क्या, देखिये
आदरणीय Samar kabeer जी आपके सुझाव का तहे दिल से शुक्रिया, सोचता हूँ क्या हो सकता है इसमें.
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,आज के हालात पर बहुत उम्दा रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
चौथे बन्द की दूसरी पंक्ति में 'वायदों' ग़लत शब्द है सही शब्द है "वादों'" देखियेगा ।
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी, आदरणीय Harash Mahajan जी आपका ह्रदय से आभार
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