हो सके तो वन बचा लो
दे रहे जीवन सभी को,
खेत, वन, उपवन सजा लो.
हैं जरूरी जिन्दगी को,
हो सके तो वन बचा लो.
हो चुके हैं, मत करो इन,
पर्वतों को और नंगा.
ध्यान रखना है हमें अब,
और मैली हो न गंगा,
धो चुके तन किन्तु मन का,
कलुष तो उसमें न डालो. ......हो सके तो वन बचा लो.
बात पानी की करें क्या,
रेत भी लूटी नदी की.
मीन अब इतिहास बनती,
दिख रही है नव सदी की.
मृत न झरने हों कहीं पर,
जो बचा है जल सँभालो.......हो सके तो वन बचा लो.
वृक्ष कोई भी प्रगति की,
राह का काँटा नहीं है.
सत्य यह है, दुख किसी ने,
पेड़ का बाँटा नहीं है.
बात तब है, पेड़ कोई,
एक काटो सौ लगा लो.......हो सके तो वन बचा लो.
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
बसंत कुमार शर्मा, जबलपुर
Comment
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी आपका तहे दिल से शुक्रिया
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी आपका तहे दिल से शुक्रिया
आद0 बसन्त कुमार नई सादर नमन। बहुत बढ़िया बात कही आपने नवगीत के माध्यम से। बहुत बहुत बधाई सम्प्रेषित है।
आ. भाई बसंत जी, बेहतरीन गीत हुआ है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी आपका दिल से शुक्रिया
आदरणीय बसंत जी सार्थक सन्देश देते इस शानदार गीत के लिए तहे दिल बधाई स्वीकार करें सादर
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आपका तहे दिल से शुक्रिया
आदरणीय Samar kabeer जी आपके स्नेह को सादर नमन
आदरणीय शर्मा जी बहुत सुन्दर और सरस रचना..
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,अच्छा नवगीत लिखा,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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