For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

बसती है मुहब्बतों की बस्तियाँ कभी-कभी

212 1212 1212 1212

...

बसती है मुहब्बतों की बस्तियाँ कभी-कभी,
रौंदती उन्हें ग़मों की तल्खियाँ कभी-कभी ।

ज़िन्दगी हूई जो बे-वफ़ा ये छोड़ा सोचकर,
डूबती समंदरों में कश्तियाँ कभी-कभी ।

गर सफर में हमसफ़र मिले तो फिर ये सोचना,
ज़िंदगी में लगती हैं ये अर्जियाँ कभी-कभी ।

उठ गए जो मुझको देख उम्र का लिहाज़ कर,
मुस्कराता देख अपनी झुर्रियाँ कभी-कभी ।

इश्क़ में यकीन होना लाजिमी तो है मगर,
दूर-दूर दिखती हैं ये मर्ज़ियाँ कभी-कभी ।

ज़िन्दगी में दोस्ती का आज भी मुकाम है,
फुरकतें भी लाज़िमी हैं दरमियाँ कभी-कभी ।

बेदिली की आग में वो छोड़ गए थे साथ जब,
सुनता हूँ सदाओं में वो सिसकियाँ कभी-कभी ।

डोलता नहीं हूँ देख शोखियों भरा ये दिल,
पर लुभायें ज़ुल्फ़ की ये बदलियाँ कभी-कभी ।

*************

मौलिक व अप्रकाशित

--हर्ष महाजन

Views: 678

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 8, 2018 at 10:52am

आ. हर्ष जी 
दूर-दूर दिखती हैं ये मर्ज़ियाँ कभी-कभी ।.. दीखती नहीं पढ़ सकते ..फिर सोचिये..
सादर 

Comment by Harash Mahajan on April 7, 2018 at 5:01pm

आदरणीय श्यामवीर जी आपकी आमद और पसंदगी का बहुत बहुत शुक्रिया ।

Comment by Shyam Narain Verma on April 7, 2018 at 3:42pm
बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय
Comment by Harash Mahajan on April 7, 2018 at 3:01pm

आदरणीय सुशील सरना जी आदाब ।

आपकी पसंदगी के लिए दिली आभार और शुक्रिया ।

सादर ।

Comment by Harash Mahajan on April 7, 2018 at 2:57pm

आदरणीय समर जी आदाब । आपकी ग़ज़ल पसंद आयी तो सर लिखना सार्थक हुआ । जी हाँ आ.नीलेश जी की कही चीजों पर ध्यान रख दोनों अशआर में तब्दीली की है ।

आपकी आमद का बहुत बहुत धन्यवाद सर ।

सादर ।

Comment by Harash Mahajan on April 7, 2018 at 2:53pm

आदरणीय नीलेश सर आपकी आमद का दिली शुक्रिया और आभार ।

आपकी निशानदेही को देखकर तब्दीली की है ज़रा वक़्त मिले तो देखिएगा ।

वो दोनों अशआर में तब्दीली की है सर:....

इश्क़ में यकीन होना लाजिमी तो है मगर,
दूर-दूर दिखती हैं ये मर्ज़ियाँ कभी-कभी ।

.

डोलता नहीं हूँ देख शोखियाँ भरा भी दिल,
पर लुभाये ज़ुल्फ़ की ये बदलियाँ कभी-कभी ।

सादर ।

Comment by Sushil Sarna on April 7, 2018 at 2:38pm

बसती है मुहब्बतों की बस्तियाँ कभी-कभी,

रौंदती उन्हें ग़मों की तल्खियाँ कभी-कभी ।

ज़िन्दगी हूई जो बे-वफ़ा ये छोड़ा सोचकर,

डूबती समंदरों में कश्तियाँ कभी-कभी ।

अति सुंदर सृजन सर।

Comment by Samar kabeer on April 7, 2018 at 2:33pm

जनाब हर्ष महाजन जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

जनाब निलेश जी की बातों का संज्ञान लें ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 7, 2018 at 12:59pm

आ. हर्ष जी 
अच्छी ग़ज़ल हुई    है ///
.
पर्दे में है चाँद औ दहकते प्यार की धड़कनें,/// ये मिसरा लय में नहीं है 
.
चलती हैं खुदा की ऐसी मर्ज़ियाँ कभी-कभी.. ख़ुदा की मर्ज़ी तो हमेशा ही चलती है..अत: कभी कभी कहना ठीक नहीं है 
ग़ज़ल के लिए बधाई 
सादर 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Tuesday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Apr 27

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service