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ज़ुदा हुआ पर सज़ा नहीं है,
न ये समझना ख़ुदा नहीं है ।
ज़रा सा नादाँ है इश्क़ में वो,
सबक़ वफ़ा का पढ़ा नहीं है'
दिखाऊँ कैसे वो दिल के अरमाँ ,
चराग दिल का जला नहीं है ।
है दर्द गम का सफर में अब तक,
कि अश्क़ अब तक गिरा नहीं है ।
न वो ही भूले ये दिल दुखाना,
यहाँ अना भी खुदा नहीं है ।
न देना मुझको ये ज़ह्र कोई,
हुनर तो है पर नया नहीं है ।
लिपट जा आकर तू ऐ महब्बत,
जनाज़ा रुख़्सत हुआ नहीं है'
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मौलिक व अप्रकाशित
--------हर्ष महाजन
Comment
आदरणीय नवीन मणि जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
वाह अति सुंदर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई ।
आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani जी आदाब । मेरी रचना आपको पसंद आई इसजे लिए मैं आपका तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ और उनीद करता हूँ आईन्दा भी आप इसी तरह आते रहेंगे ।
सादर ।
बहुत सी हिदायतें और कड़वे सच बयां करती छोटी बह्र पर बढ़िया रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब हर्ष महाजन साहिब।
जनाब हर्ष साहिब ,सुन्दर ग़ज़ल हुई है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमायें।
आ. राम अवध जी बहुत बहुत शुक्रिया ।
आप जूस ऊला की बात कर रहे हैं उस मुतल्लक पहले ही
शुद्धी कर ली गयी है ।आपकी आमद के लिए पुनः ममनून हूँ सर ।
सादर ।
आदरणीय समर सर आपकी पसंदगी मेरे लिए बहुत मायने रखती है सर ।
दोनों शेरों के मुतल्लक आपके सुझाव मुझे बहुत पसंद आये हैं । बहुत बहुत शुक्रिया सर ।
सादर ।
आदरणीय हर्ष महाजन जी ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है।ये इश्क है क्या पता नहीं है ऐसा कर सकते हैं ऊला मिसरा पर भी काम करने की आवश्यकता है।
जनाब हर्ष महाजन जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'ज़रा सा नादाँ है इश्क़ में वो
सबक़ वफ़ा का पढ़ा नहीं है'
'दिखाऊँ कैसे मैं दिल के अरमाँ'
'लिपट जा आकर तू ऐ महब्बत
जनाज़ा रुख़्सत हुआ नहीं है'
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