एक गाँव में कुछ लोग ऐसे थे जो देख नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो सुन नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो बोल नहीं पाते थे और कुछ ऐसे भी थे जो चल नहीं पाते थे। उस गाँव में केवल एक ऐसा आदमी था जो देखने, सुनने, बोलने के अलावा दौड़ भी लेता था। एक दिन ग्रामवासियों ने अपना नेता चुनने का निर्णय लिया। ऐसा नेता जो उनकी समस्याओं को जिलाधिकारी तक सही ढंग से पहुँचा कर उनका समाधान करवा सके।
जब चुनाव हुआ तो अंधों ने अंधे को, बहरों ने बहरे को, गूँगों ने गूँगे को और लँगड़ों ने एक लँगड़े को वोट दिया। जो आदमी देख, सुन, बोल और दौड़ सकता था उसे केवल अपना ही वोट मिल सका। गाँव में अंधों की संख्या ज्यादा थी इसलिये एक ऐसा आदमी नेता बन गया जिसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था।
अंधा गाँव के इकलौते देख, सुन, बोल और दौड़ सकने वाले आदमी को लेकर जिलाधिकारी के पास गया और बोला, “हुजूर, माईबाप गाँव के सभी आदमियों एवं जानवरों के गले में घंटी बँधवा दीजिये और सभी वृक्षों और दीवारों में ऐसा सायरन लगवा दीजिये जो किसी के नजदीक आते ही बज उठे। इससे सारे ग्रामवासी बेधड़क सारे गाँव में घूम सकेंगे और अपना-अपना काम आराम से कर सकेंगे।”
जिलाधिकारी का दिमाग भन्ना गया। वह इकलौते देख, सुन, बोल और दौड़ सकने वाले आदमी से बोला, “यह क्या पागलपन है।”
आदमी बोला, “हुजूर यह लोकतंत्र है।”
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय रवि प्रभाकर जी
जनाब Sheikh Shahzad Usmani साहब मैं स्वयं ओबीओ मंच पर लघुकथा का विद्यार्थी हूँ। अभी तक केवल आठ-दस लघुकथाएँ ही लिख पाया हूँ जो यहाँ ओबीओ पर ही मौज़ूद हैं। लघुकथा की सराहना के लिये तह-ए-दिल से आपका शुक्रगुजार हूँ।
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय लड़ीवाला जी
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब समर कबीर साहब
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गोपाल नारायण जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय तेजवीर सिंह जी
वाह आदरणीय क्या शानदार कटाक्ष किया है..वाकई में लोकतंत्र आजकल बड़ा दुखदाई प्रतीत हो रहा है...
वाह! बहुत ही सधी और शानदार लघुकथा है भाई धर्मेन्द्र जी । आपकी कल्पना शक्ित की दाद देता हूं भाई जी । लघुकथा का शीर्षक ही सब कुछ बयां कर रहा है । बधाई स्वीकार करें ।
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