२१२२/ २१२२/ २१२२/ २१२
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तेरी ख़ातिर कुछ न हम कर पाए प्यारी आसिफ़ा
क्या ये तेरी मौत है या फिर हमारी आसिफ़ा?
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एक हम हैं जो लड़ाई देख कर घबरा गए
एक तू जो सब से लड़ कर भी न हारी आसिफ़ा.
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ऐ मेरी बच्ची, ज़मीं तेरे लिए थी ही नहीं
सो ख़ुदा भी कह पड़ा वापस तू आ री आसिफ़ा.
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हुक्मराँ इन्साफ़ देगा ये तवक़्क़ो है किसे
क़ातिलों की भी मगर आएगी बारी आसिफ़ा.
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इतनी लाशों से घिरा मैं लाश क्यूँ होता नहीं
सोच कर क्यूँ तुझ को मेरा दिल है भारी आसिफ़ा.
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वो दरिन्दे गर मुझे मिल जाएँ, उन के सीने में
ये कलम मैं घोंप दूँ कर के कटारी आसिफ़ा..
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
आग्रह: जब एक आठ साल की बच्ची के बलात्कार और हत्या की दास्तान सुनी तो मैं ख़ुद को उस के शव पर श्रद्धा सुमन चढाने से नहीं रोक पाया और भावावेश में ये ग़ज़ल कही है. मुझे लगा कि एक समाज के रूप में जहाँ हम लाशों जैसा व्यवहार कर रहे हैं वहीँ कम से कम साहित्यकार को मौन नहीं रहना चाहिए. ये मेरे नपुन्सक आक्रोश की अभिव्यक्ति है... कृपया इस के शिल्पगत दोषों को नज़रअंदाज़ करें.
Comment
बहुत मार्मिक एवम हृदय स्पर्शी गज़ल।हार्दिक बधाई नीलेश जी।
ऐ मेरी बच्ची, ज़मीं तेरे लिए थी ही नहीं
सो ख़ुदा भी कह पड़ा वापस तू आ री आसिफ़ा.
आभार आ शेख़ शहज़ाद उस्मानी साहब
दो बेटियों का पिता हूँ, गुस्से से उबल पड़ता हूँ लेकिन आम आदमी कर क्या सकता है इस धार्मिक और राजनैतिक गिरोहों के खिलाफ जो गिरफ्ताररी तो दूर FIR तक नहीं होने द्व रहे हैं।
रचना की सराहना का आभार आ समर सर।
कभी कभी बहुत घिन्न आती है इस समाज से जो बलात्कार जैसे घृणित कार्य मे भी मज़हबी और राजनैतिक एंगल ढूंढता है।
निर्भया हो, उन्नाव हो कठुआ हो, कई लोग प्रतिक्रिया सिर्फ इएलिये नहीं देते कि फुलां राज्य मव फुलां पार्टी की सरकार है।
पता नहीं क्या होगा।
कम-से-कम आपने तो अपनी अनुभूति इतने अच्छे शिल्प में यहां आज ही तुरंत शाब्दिक की। तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब नीलेश शेव्गांवकर साहिब।
एक गंभीर रचनाकार के रूप में अपना दायित्व निभाते हुए इस बेहतरीन श्रद्धांजलि और आह्वान के साथ सार्थक आग्रह के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया और आभार आदरणीय नीलेश शेव्गांवकर साहिब। हार्दिक बधाई और आभार।
जनाब निलेश 'नूर'साहिब आदाब ,'आसिफ़ा' को ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करके आपने तमाम साहित्य जगत को जागरूक किया है,वाक़ई अब इन आँखों से ये दरिंदगी देखना मुहाल हो गया है,पता नहीं कब तक ये ज़ुल्म होता रहेगा और हम तमाशाई बने देखते रहेंगे :-
"नफ़रतों के साँप कब तक यूँ ही फन फैलाएंगे
ज़िन्दगी में क्या ख़ुशी के दिन कभी न आएंगे
किस जगह जा कर रुकेगा ज़ुल्म का ये क़ाफ़िला
कब तलक इंसान यूँ क़दमों में रौंदे जाएंगे"?
इस ग़ज़ल पर आपको सलाम पेश करता हूँ ।
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