चल दिया लेकर तगारी
© बसंत कुमार शर्मा
सिर्फ रोटी के लिए बस,
खट रही है उम्र सारी.
सूर्य निकला भी नहीं, वह,
चल दिया लेकर तगारी.
ठण्ड, बारिश, धूप तीखी,
वार सारे सह रहा है.
और उसका खून ही तो,
बन पसीना बह रहा है.
ढक गया नीचे बदन कुछ,
देह ऊपर है उघारी.
हड्डियों का एक ढाँचा,
लग रहा जैसे बिजूका.
झेलता है आदमी यह,
जेठ में लू के भभूका.
रात दिन जोती धरा, पर
पट न पायी है उधारी.
चाल टेढ़ी है ग्रहों की,
भय उसे पंडित दिखाते
रोज साहूकार अपना,
रौब घर आकर जमाते.
जन्म से सुनता रहा है,
बँट रही इमदाद भारी.
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
आदरणीय Mohammed Arif जी आपकी हौसला अफजाई को सादर नमन, इस्लाह का संज्ञान मैंने लिया है, इसी तरह स्नेह बनाये रखें सादर
आदरणीय Samar kabeer जी सादर नमन आपको, आपका स्नेह ही मेरा संबल है, न को नहीं कर दिया है मैंने एवं एक साथ पढने पर लय आती है , अब देखें यदि फिर भी कुछ गडबड है तो मैं कुछ और सोचता हूँ,
चाल टेढ़ी ग्रह नक्षत्रों की बता पंडित डराते.
पुनः ह्रदय से आभार आपका.
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,
मज़दूर की दशा और विवशता को रेखांकित करता बेहतरीन नवगीत । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह का संज्ञान लें ।
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,बहुत उम्दा नवगीत हुआ है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'सूर्य निकला भी न है'
इस पंक्ति में 'नहीं' के स्थान पर 'न है' लिखने का कोई कारण है क्या?
'बता पंडित डराते' ये पंक्ति लय में नहीं है,देखें ।
आदरणीय Shyam Narain Verma जी आभार आपका, सादर नमन
बहुत खूबसूरत रवां नवगीत है बहुत बहुत बधाई आपको । सादर |
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