निष्कलंक कृति .....
अवरुद्ध था
हर रास्ता
जीवन तटों पर
शून्यता से लिपटी
मृत मानवीय संवेदनाओं की
क्षत-विक्षत लाशों को लांघ कर
इंसानी दरिंदों के
वहशी नाखूनों से नोची गयी
अबोध बच्चियों की चीखों से
साक्षात्कार करने का
रक्त रंजित कर दिए थे
वासना की नदी ने
अबोध किलकारियों को दुलारने वाले
पावन रिश्तों के किनारे
किंकर्तव्यमूढ़ थी
शुष्क नयन तटों से
रिश्तों की
टूटी किर्चियों की
चुभन का
कारण ढूंढते हुए
विधाता के शिल्प की
अबोध कृतियाँ
देह निर्जीव थी
अबोध की
किन्तु
मौन देह पर
अंकित थे
कई जीवित प्रश्न
समाज के लिए
मानवीय संवनाओं के किनारों पर
इतनी सड़ांध क्यों है ?
क्या बदलते परिवेश में
संस्कारों की नदी को
वासना की नदी ने लील लिया ?
गर्भ से गर्भ की यात्रा का मर्म
आदि से असमय अनंत को गमन
आँखों के मूक तटों पर टहलते
हर प्रश्न का शमन
अपनों से अपनों का हरण
ऐ ख़ुदा !
धरा पर कोई तो एक किनारा
ऐसा बना दिया होता
जहां सिर्फ़ इंसान होते
इंसानियत होती
तेरी कृति
सृष्टि की एक
निश्शंक
निष्कलंक
कृति होती
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया बबिता गुप्ता जी सृजन पर आपकी मुक्त कंठ द्वारा की गयी प्रशंसा का दिल से आभार।
आदरणीय सर जी, बहुत ही सटीक शब्दों में भावों को पिरोया है, बधाई स्वीकार कीजिए प्रस्तुत रचना के लिए ।
आद0 Neelam Upadhyayaजी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया का आभारी है।
आदरणीय सुशिल सरना जी, बहुत ही अच्छी, भावपूर्ण अतुकांत कविता। हार्दिक बधाई
आदरणीय नीलेश जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया का आभारी है।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब , सृजन के भावों को आत्मीय सम्मान देने का दिल से आभार।
भावपूर्ण प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें आ. सरना जी
जनाब सुशील सरना जी आदाब, हमेशा की तरह ये कविता भी बहुत ख़ूब हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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