चिथड़े कपड़े,टूटी चप्पल,पेट में एक निवाला नहीं,
बीबी-बच्चों की भूख की आग मिटाने की खातिर,
तपती दोपहरी में,तर-वतर पसीने से ,कोल्हू के बैल की तरह जुटता,
खून-पसीने से भूमि सिंचित कर,माटी को स्वर्ण बनाता,
कद काठी उसकी मजबूत,मेहनत उसकी वैसाखी,
अपने दम पर जीने वाला,मालिकी खुद की ,
कंधों पर गरीबी का बोझ ढोता,ख्वाईश आसमान छूने की,
फुटपाथ पर सोने वाला,सपनों की दुनिया बुनता,
रामधुन गाता, तल्लीनता से कर्म करता जाता,
अमीरों की खुशियों की नींव में,अनमोल योगदान हैं उसका,
रईसों की रौनक बढाने की धुन में,खबर नही हैं मजदूर दिवस की,
रोजमर्रा की तरह ही वो,इस दिन भी मजदूरी करता,
प्रण करे अपने आप से,मजदूरी को मजबूरी न बनने दे,
आओं मिलकर हमसब, 'सच्ची,निस्वार्थ भावना का उत्सव' मना ले.
रचना मौलिक व अप्रकाशित
बबीता गुप्ता
Comment
सराहना करने के लिए आप सभी का सधन्यवाद.
आदरणीया बबिता जी बहुत अच्छी रचना प्रगतिवादी विचारों से ओतप्रोत इस अच्छी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
आ. बबीता जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
मोहतरमा बबीता गुप्ता जी आदाब,मज़दूर दिवस पर अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
कई टंकण त्रुटियाँ हैं,देखियेगा ।
आठवीं पंक्ति में "ख्बास"क्या है?
12वीं पंक्ति में 'रहीसो' को "रईसों" कर लें ।
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