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मैं जब भी चला छोड़ने मैकशी को ।
अदाएं जगाने लगीं तिश्नगी को ।।1
लिए साथ मैं जी रहा बेखुदी को ।
सजाता रहा होंठ पर बाँसुरी को ।।2
अमीरों की महफ़िल में सज धज के जाना ।
वो देते नहीं अहमियत सादगी को ।।3
है मिलता उसे ही जो रो करके माँगे ।
बिना रोये कब हक़ मिला आदमी को ।।4
पकड़ कर उँगलियों को चलना था सीखा।
दिखाते हैं जो रास्ता अब हमी को ।।5
मुहब्बत हुई इस तरह आप से क्यूँ ।
अभी तक न हम जोड़ पाये कड़ी को ।।6
बयाँ हो गयी आज उनकी कहानी ।
छुपाते रहे जो यहां दुश्मनी को ।।7
मेरे कत्ल का कर गए फ़तवा जारी ।
जो कल दे रहे थे दुआ जिंदगी को ।।8
अदब काफिया बह्र सब हैं नदारद ।
जनाजे पे वो रख रहे शायरी को ।।9
नहीं कर सका एक हसरत भी पूरी ।
मैं तरसा बहुत उम्र भर इक ख़ुशी को ।।10
नवीन
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ. भाई नवीन जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब नवीन जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल है, बधाई स्वीकार करें ।
सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई। |
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