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मत अभिमान करो ...

मत अभिमान करो ...
समय पक्षधर बना आज,
उसका सम्मान करो ...

कल साँसों की संचित पूँजी चुकने वाली है ...
माटी ही माटी को आकर ढकने वाली है ...
स्नेह मिला तुमको जितना भी, अब प्रतिदान करो ...
मत अभिमान करो ...

बीत चुके दिन कच्चे - पक्के, अब उनको छोड़ो ...
नयी दिशा को, नयी डगर को जीवन रथ मोड़ो ...
नए स्वप्न लेकर सुख - रजनी का आव्हान करो ...
मत अभिमान करो ...

मन की गाड़ी सदा तुम्हारी मर्ज़ी से चलती है,
लेकिन धूप भले जितनी आक्रामक हो, ढलती है ...
अवसर है, मानवता के पथ का निर्माण करो ...
मत अभिमान करो ... Raavi (Pen name)

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Comment

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Comment by Ananda Shresta on July 17, 2011 at 10:57pm

सुन्दर रचना ।

कल साँसों की संचित पूँजी चुकने वाली है ...
माटी ही माटी को आकर ढकने वाली है ...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 21, 2011 at 10:11pm

शाश्वत सत्य कई रूपों में मुखरित हुआ है.

इस निर्देशात्मक रचना की कई पंक्तियों ने मुग्ध किया है. बधाई.

 

Comment by Prabha Khanna on June 21, 2011 at 9:35am
Manniya Shanno di, aur sabhi aadarneey mittron ka haardik dhanyavaad... I am new to OBO, but like this platform very much... Raavi (is my pen name).
Comment by neeraj tripathi on June 20, 2011 at 5:56pm
माटी ही माटी को आकर ढकने वाली है ...
स्नेह मिला तुमको जितना भी, अब प्रतिदान करो ...
ये विशेष लगा ....सुन्दर रचना....धन्यवाद
Comment by Rajeev Mishra on June 20, 2011 at 2:39pm
माटी ही माटी को आकर ढकने वाली है ...बहुत सुंदर अभिव्यक्ति साधुवाद ! एक बेहतरीन रचना !
Comment by प्रदीप सिंह चौहान on June 20, 2011 at 1:12pm
कल साँसों की संचित पूँजी चुकने वाली है ...
माटी ही माटी को आकर ढकने वाली है ...
स्नेह मिला तुमको जितना भी, अब प्रतिदान करो ...
मत अभिमान करो ...
                                       बहुत ही सुंदर और सारगर्भित रचना .........
Comment by Shanno Aggarwal on June 20, 2011 at 1:04pm

प्रिय प्रभा, तुम ओबीओ पर आ गयी हो और आते ही धमाका ! मेरा मतलब कि इतनी सुंदर रचना लिखकर प्रस्तुत की है..पढ़कर बहुत खुशी हुई. बधाई स्वीकार करो.

'' बीत चुके दिन कच्चे - पक्के, अब उनको छोड़ो ...
नयी दिशा को, नयी डगर को जीवन रथ मोड़ो ...
नए स्वप्न लेकर सुख - रजनी का आव्हान करो ...
मत अभिमान करो ...'' बहुत खूब..ऐसे ही लिखती रहो.  

Comment by विवेक मिश्र on June 20, 2011 at 12:36pm
सकारात्मक ऊर्जा से भरा सुन्दर गीत. ऐसे नवगीत आजकल कम ही सुनाई पड़ते हैं. साधुवाद.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 20, 2011 at 9:33am

कल साँसों की संचित पूँजी चुकने वाली है ...
माटी ही माटी को आकर ढकने वाली है ...

 

आहा ! जीवन की सच्चाई को बयान करती बेहद ही संजीदा रचना, माटी ही माटी को आकर ढकने वाली है..यह अटल सत्य है फिर भी हम इस तथ्य को समझते हुए ना समझने का उपक्रम किये बैठे है |

बहुत खूब प्रभा जी, इस शानदार अभिव्यक्ति हेतु ह्रदय से बधाई स्वीकार करे |

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