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सुन्दर रचना ।
कल साँसों की संचित पूँजी चुकने वाली है ...
माटी ही माटी को आकर ढकने वाली है ...
शाश्वत सत्य कई रूपों में मुखरित हुआ है.
इस निर्देशात्मक रचना की कई पंक्तियों ने मुग्ध किया है. बधाई.
प्रिय प्रभा, तुम ओबीओ पर आ गयी हो और आते ही धमाका ! मेरा मतलब कि इतनी सुंदर रचना लिखकर प्रस्तुत की है..पढ़कर बहुत खुशी हुई. बधाई स्वीकार करो.
'' बीत चुके दिन कच्चे - पक्के, अब उनको छोड़ो ...
नयी दिशा को, नयी डगर को जीवन रथ मोड़ो ...
नए स्वप्न लेकर सुख - रजनी का आव्हान करो ...
मत अभिमान करो ...'' बहुत खूब..ऐसे ही लिखती रहो.
कल साँसों की संचित पूँजी चुकने वाली है ...
माटी ही माटी को आकर ढकने वाली है ...
आहा ! जीवन की सच्चाई को बयान करती बेहद ही संजीदा रचना, माटी ही माटी को आकर ढकने वाली है..यह अटल सत्य है फिर भी हम इस तथ्य को समझते हुए ना समझने का उपक्रम किये बैठे है |
बहुत खूब प्रभा जी, इस शानदार अभिव्यक्ति हेतु ह्रदय से बधाई स्वीकार करे |
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