तू जहाँ कह रहा है वहीं देखना
शर्त ये है तो फिर.. जा नहीं देखना.
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जीतना हो अगर जंग तो सीखिये
हो निशाना कहीं औ कहीं देखना.
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खो दिया गर मुझे तो झटक लेना दिल
धडकनों में मिलूँगा..... वहीँ देखना.
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देखता ही रहा... इश्क़ भी ढीठ है
हुस्न कहता रहा अब नहीं देखना.
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कितना आसाँ है कहना किया कुछ नहीं
मुश्किलें हमने क्या क्या सहीं देखना.
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एक पल जा मिली “नूर” से जब नज़र
मुझ को आया नहीं फिर कहीं देखना.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. भाई लक्ष्मण जी
आ. भाई नीलेश जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
शुक्रिया आ. सुरेन्द्रनाथ जी
आभार
आद0 नीलेश भाई जी सादर अभिवादन। बढिया ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकार कीजिये
शुक्रिया आ. रवि जी,
आभार
आदरणीय नीलेश जी अच्छी ग़ज़ल के लिए शेर दर शेर मुबारकबाद पेश करता हूं समर साहब का और आपका दोनों का नजरिया अपनी अपनी जगह सही है
अच्छा तर्क है ।
धन्यवाद आ. समर सर,
आपके मार्गदर्शन से ग़ज़ल जैसे तैसे पूरी हो पाई ..
अब परिस्थितियाँ बदल गयी हैं ... युद्ध मायावी लोग लड़ रहे हैं... पल में रात को दिन बता देते हैं... जाने कहाँ कहाँ के कंकाल खोद लाते हैं और कंकालों से भी भाषण करवा लेते हैं... इसलिये माया से लड़ने के लिए माया का मश्विरा दे दिया मैंने भी ... आज नहीं तो कल मैं भी बुजुर्गों की गिनती में आऊँगा तो ... -:))))
सादर
जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब, बहुत मुख़्तसर क़वाफ़ी में अच्छी ग़ज़ल कही आपने , दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'जीतना हो अगर जंग तो सीखिये
हो निशाना कहीं औ कहीं देखना'
जंग जीतने का नया नुस्ख़ा बता रहे हैं आप,बुज़ुर्गों ने तो ये बताया था :-
'जीतना हो अगर जंग तो सीखिये
हो निशाना जहाँ पर वहीं देखना'
शुक्रिया आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब
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बस कल शाम को 'शाम वाला' स्प्राइट पीते पीते यह ग़ज़ल हो गयी है..
सुबह देखता हूँ तो लगता है की अभी सुधार की बहुत गुंजाइश है ... इस में भी और मुझ में भी ;)))
आभार
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