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हो गईं इश्क में कैसी दुश्वारियां ।
हाथ आती गयीं सिर्फ बेचैनियां ।।1
क्यों हुई ही नहीं तुमसे नजदीकियां ।
हम समझने लगे थोड़ी बारीकियाँ ।।2
इस तरह मुझपे इल्जाम मत दीजिये ।
कब छुपीं आप से मेरी लाचारियां ।।3
उनकी तारीफ़ करती रहीं चाहतें ।
वो गिनाते रहे बस मेरी खामियां ।।4
दिल चुरा ले गई आपकी इक नजर ।
कर गए आप कैसे ये गुस्ताखियां ।5
दिल जलाने की साजिश से क्या फायदा ।
दे गया कोई जब आपको चूड़ियां ।।6
उन दरख्तों से मैं क्या शिकायत करूँ ।
जब लचकती रहीं बाग में टहनियां।।7
एक आई लहर सब उड़ा ले गयी ।
कुछ बचा ही नहीं प्यार के दरमियाँ ।।8
पार करने का जब हौसला ही न था ।
क्यों समंदर में उतरीं नईं कश्तियाँ ।।9
हिज्र के रास्ते पर चला था मगर ।
रुक गये यूँ कदम देखकर सिसकियाँ ।।10
हम घटाते रहे उम्र भर फासले ।
तुम बढाते गये बेसबब दूरियाँ ।।11
--- नवीन
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 कबीर सर सादर नमन । जी सर अभी बदलता हूँ ।
गज़ल अच्छी कही है। मुबारक ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
हुस्न-ए-मतला में 'नजदीकियां-और बारीकियां,दोनों मिसरों में "कियाँ",एक मिसरे में क़ाफ़िया बदलें ।
भाई राम शिरोमणि जी यह मेरी पाठशाला यहाँ मैं कबीर सर निर्देशन में ग़ज़ल की ए बी सी डी सीखता हूँ ।
सुंदर अशआर हुए है भाई।।आपको यहाँ देखकर प्रसन्नता हुई।।जय जय
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