याद आया है गुज़रा पल कोई
लेगी अँगड़ाई फिर ग़ज़ल कोई.
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कोशिशें और कोई करता है
और हो जाता है सफल कोई.
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ज़िन्दगी एक ऐसी उलझन है
जिस का चारा नहीं न हल कोई.
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इश्क़ में हम तो हो चुके रुसवा
वो करें तो करें पहल कोई.
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हिज्र में आँसुओं का काम नहीं
ये इबादत में है ख़लल कोई.
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इक सिकंदर था और इक हिटलर
आज तू है तो होगा कल कोई.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
तीसरे और पांचवें शैर के सानी मिसरे कुछ और समय चाहते हैं ।
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