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ग़ज़ल नूर की -तू जहाँ कह रहा है वहीं देखना

तू जहाँ कह रहा है वहीं देखना
शर्त ये है तो फिर.. जा नहीं देखना.
.
जीतना हो अगर जंग तो सीखिये
हो निशाना कहीं औ कहीं देखना.
.
खो दिया गर मुझे तो झटक लेना दिल
धडकनों में मिलूँगा..... वहीँ देखना.
.
देखता ही रहा... इश्क़ भी ढीठ है
हुस्न कहता रहा अब नहीं देखना.
.
कितना आसाँ है कहना किया कुछ नहीं
मुश्किलें हमने क्या क्या सहीं देखना.
.
एक पल जा मिली “नूर” से जब नज़र
मुझ को आया नहीं फिर कहीं देखना.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 4, 2018 at 7:20pm

शुक्रिया आ. भाई लक्ष्मण जी 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 8, 2018 at 7:48pm

आ. भाई नीलेश जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 8, 2018 at 2:12pm

शुक्रिया आ. सुरेन्द्रनाथ जी 
आभार 

Comment by नाथ सोनांचली on May 8, 2018 at 10:22am

आद0 नीलेश भाई जी सादर अभिवादन। बढिया ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकार कीजिये

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 7, 2018 at 8:50pm

शुक्रिया आ. रवि जी,
आभार 

Comment by Ravi Shukla on May 7, 2018 at 6:00pm

आदरणीय नीलेश जी अच्छी ग़ज़ल के लिए शेर दर शेर मुबारकबाद पेश करता हूं समर साहब का और आपका दोनों का नजरिया अपनी अपनी जगह सही है

Comment by Samar kabeer on May 7, 2018 at 12:27pm

अच्छा तर्क है ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 7, 2018 at 12:09pm

धन्यवाद आ. समर सर,
आपके मार्गदर्शन से ग़ज़ल जैसे तैसे पूरी हो पाई ..
अब परिस्थितियाँ बदल गयी हैं ... युद्ध मायावी लोग लड़ रहे हैं... पल में रात को दिन बता देते हैं... जाने   कहाँ कहाँ के कंकाल खोद लाते हैं और कंकालों से भी भाषण   करवा लेते हैं... इसलिये  माया से लड़ने के लिए माया का मश्विरा दे दिया मैंने भी ... आज नहीं तो कल मैं भी बुजुर्गों की गिनती   में आऊँगा तो ... -:)))) 
सादर 

Comment by Samar kabeer on May 7, 2018 at 12:01pm

जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब, बहुत मुख़्तसर क़वाफ़ी में अच्छी ग़ज़ल कही आपने , दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'जीतना हो अगर जंग तो सीखिये

हो निशाना कहीं औ कहीं देखना'

जंग जीतने का नया नुस्ख़ा बता रहे हैं आप,बुज़ुर्गों ने तो ये बताया था :-

'जीतना हो अगर जंग तो सीखिये

हो निशाना जहाँ पर वहीं देखना'

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 7, 2018 at 11:22am

शुक्रिया आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब 
.
बस कल शाम को 'शाम वाला' स्प्राइट पीते पीते यह ग़ज़ल हो गयी है..
सुबह देखता हूँ तो लगता है की अभी सुधार की बहुत गुंजाइश है ... इस में भी और मुझ में भी ;))) 
आभार 

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