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तुम अपने दस्त-ए-हुनर से समां बदल डालो
अगर पसंद नहीं है जहाँ बदल डालो
गुबार दिल में दबाने से फ़ायदा क्या है
सुकून गर न मिले आशियाँ बदल डालो
उदास गुल हैं जहाँ तितलियों नहीं जाती
तुम अपने प्यार से वो गुलसितां बदल डालो
जहाँ तलक न पहुँचती ज़िया न बादे सबा
तो फ़िर ये काम करो वो मकां बदल डालो
भरोसा है तुम्हें तीर-ए-नज़र पे तो जानाँ
अगर कमाँ है मुख़ालिफ़ कमाँ बदल डालो
अभी अभी तो हुआ है जवाँ मेरा गुलशन
ख़जां का रुख़ जो इधर हो ख़जां बदल डालो
मेरे वजूद से तुमको अगर महब्ब्त है
मेरी ज़मीन मेरा आसमाँ बदल डालो
राजेश कुमारी ' राज '
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आद० नरेन्द्र सिंह जी
आद० आशुतोष जी आपका पुनः आभार .
बहुत बहुत शुक्रिया आद० समर भाई जी पोस्ट पर पुनः आकर आद० आशुतोष जी के संशय निवारण करने का आपने मुझसे बेहतर स्पष्ट किया .
'उदास गुल हैं जहाँ तितलियाँ नहीं जतीं'
'जहाँ तलक न पहुंचती ज़िया न बाद-ए-सबा'
'जहाँ' शब्द कई अर्थ रखता है,जैसे 'जिस जगह''जिस घड़ी','जिस मक़ाम,एक 'जहाँ' का अर्थ होता है दुनिया,जिस्रे जहान भी कहते हैं,यहाँ इन दो मिसरों में 'जहाँ' शब्द का इस्तेमाल किया गया है उसका आर्ट है,'जिस जगह(स्थान)तक।
आदरणीया राजेश जी ..ह्रदय से आभारी हूँ आपका इस बिस्तृत तरीके से मेरी शंकाओं का निवारण करने के लिए / आपकी हर रचना मैं पढता हूँ और जब भी बात समझ में नहीं आये चाहे लघु कथा हो या ग़ज़ल मैंने आपसे निवेदन किया है और जब मुझे आपका बहुमूल्य समय मिला तो अपनी समझ को और पुख्ता करने अथवा समझ में और सूक्ष्मता बिकसित करने के लिए आपसे मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए निवेदन कर लेता हूँ / भविष्य में भी शंकाओ के निवारण हेतु आपका मार्गदर्शन और समय मिलता रहेगा इस कामना और सादर प्रणाम के साथ
आद० आशुतोष जी ग़ज़ल पर शिरकत तथा उसकी गहराई में जाकर की हुई समीक्षा के लिए बेहद शुक्रगुजार हूँ | आपके संशय को दूर करना एक लेखक के हिसाब से मेरा धर्म बनता है कई बार लेखक जिस भाव से लिख रहा है वहाँ तक पँहुचने में पाठक को कभी कभी वक्त भी लग जाता है .अब आपके संशय पर आती हूँ ...
१. उदास गुल हैं जहाँ तितलियों नहीं जाती
तुम अपने प्यार से वो गुलसितां बदल डालो.....जहाँ से के प्रयोग पर यहाँ भी मैं दुबिधा में हूँ
जहाँ का उत्तर सानी खुद दे रहा है --गुलसितां अर्थात जिस गुलसितां में गुल उदास हैं तितलियाँ नहीं जाती उसे मुहब्बत से बदल डालो (लिखते वक्त कश्मीर के हालात भी दिमाग में थे )
२ .जहाँ तलक न पहुँचती ज़िया न बादे सबा
तो फ़िर ये काम करो वो मकां बदल डालो
अगर ऐसा न हो तो फिर ऐसा हो .....लेकिन जहाँ के साथ तो फिर थोडा अटपटा लग रहा है मुझे
यहाँ भी वही बात है जहाँ तलक अर्थात उस मकाँ तलक ....वैसे इसमें ....अगर वहाँ न पँहुचती जिया न बादे सबा भी कर सकती हूँ
तो शायद और जियादा स्पष्ट हो जाएगा
अभी अभी तो हुआ है जवाँ मेरा गुलशन
ख़जां का रुख़ जो इधर हो ख़जां बदल डालो...................खजां...को बदलें या उसके रुख को
जिस खजां का रुख इधर है उस खज़ा को ही बदल डालो अर्थात मौसम ही बदल डालो --ऐसा भाव लिया है
बहुत बहुत शुक्रिया आपका इन महीन चीजों पर ध्यान दिया उम्मीद है मैं अपने भाव के अनुसार स्पष्ट कर पाई
आदरणीया राजेश जी ..क्रांतिकारी अंदाज की ग़ज़ल लगी इस रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर ..आप की रचनाओं में गहन बात होती है संभवतः मैं समझ नहीं पा रहा हूँ एक दो शेर ..जैसे ()
उदास गुल हैं जहाँ तितलियों नहीं जाती
तुम अपने प्यार से वो गुलसितां बदल डालो.....जहाँ से के प्रयोग पर यहाँ भी मैं दुबिधा में हूँ
जहाँ तलक न पहुँचती ज़िया न बादे सबा
तो फ़िर ये काम करो वो मकां बदल डालो
अगर ऐसा न हो तो फिर ऐसा हो .....लेकिन जहाँ के साथ तो फिर थोडा अटपटा लग रहा है मुझे
अभी अभी तो हुआ है जवाँ मेरा गुलशन
ख़जां का रुख़ जो इधर हो ख़जां बदल डालो...................खजां...को बदलें या उसके रुख को
मैं भली भाँती जानता हूँ और पिछली कई बार मैंने तथ्यों को न समझ पाने के कारण मैंने आपसे निवेदन किया था और आपने मेरी समस्याओं का निदान भी किया था उसी क्रम में अपने मन में उठे बिचार को आपसे साझा कर रहा हूँ अन्यथा मत लीजियेगा ...इस शेरो में मैं कुछ दुबिधा में हूँ और दुबिधा क्या है ठीक तरह से व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ सादर
आद० नीलेश भैया ग़ज़ल पर शिर्कत और दाद का बेहद शुक्रिया |
आ. राजेश दीदी,
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है ..
बधाई स्वीकार करें
सादर
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