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मुद्दतों के बाद उल्फ़त में इज़ाफ़त सी लगी
। आज फिर उसकी अदा मुझको इनायत सी लगी ।।
हुस्न में बसता है रब यह बात राहत सी लगी ।
आप पर ठहरी नज़र कुछ तो इबादत सी लगी ।।
क़त्ल का तंजीम से जारी हुआ फ़तवा मगर
। हौसलों से जिंदगी अब तक सलामत सी लगी ।।
बारहा लिखता रहा जो ख़त में सारी तुहमतें ।
उम्र भर की आशिक़ी उसको शिक़ायत सी लगी ।।
मुस्कुरा कर और फिर परदे में जाना आपका ।
बस यही हरकत ज़माने को शरारत सी लगी ।।
दे दिया था जब खुदा ने हुस्न की दौलत तमाम ।
आपके लहजे में क्यूँ सबको किफ़ायत सी लगी ।।
दफ़अतन खामोश होकर वो तेरी नाराजगी।
वस्ल की वो रात भी मुझको कयामत सी लगी ।।
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 श्याम नारायण वर्मा जी सादर आभार
भाई सुशील शरण जी सादर आभार
आ0 सतविंदर कुमार राना जी आभार । दौलत का प्रयोग स्त्री लिंग के रूप में ही प्रयोग हुआ है ।
भाई गुमनाम पिथौरा गढ़ी साहब शुक्रियः । सुझाव का स्वागत है । जगी लगी तकाबुल ए रदीफ़ दोष कहलाता है पर अगर जरूरी लगे तो मान्य भी होता है ।
मुस्कुराना की सलाह जायज है ।
बहुत खूब..
दौलत शायद स्त्रीलिंग शब्द है. सादर
मुद्दतों के बाद उल्फ़त में इज़ाफ़त सी लगी
। आज फिर उसकी अदा मुझको इनायत सी लगी ।।
हुस्न में बसता है रब यह बात राहत सी लगी ।
आप पर ठहरी नज़र कुछ तो इबादत सी लगी ।।
वाह शानदार अहसास सर .... हार्दिक बधाई सर
इस शानदार ग़ज़ल के लिए दिल से बधाईयाँ |
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