2122 1212 22/112/211
कुछ नहीं सूझता कई दिन से
जाने क्या हो रहा कई दिन से?
है अलग ये जुबाँ निगाहें अलग
क्यों नहीं राबता कई दिन से।
हो लबों पे हँसी भले कितनी
मन रहा डगमगा कई दिन से।
जल रहा दिल कोई सही में कहीं
गर्म लगती हवा कई दिन से।
खुद पे खुद का नहीं रहा काबू
यूँ चढ़ा है नशा, कई दिन से।
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सतविन्द्र जी नमस्कार, बहुत ही बेहतरीन शेर
"खुद पे खुद का नहीं रहा काबू
यूँ चढ़ा है नशा, कई दिन से।" बहुत-बहुत मुबारकबाद ।
आदरणीय महेंद्र कुमार जी सादर नमन! उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन के लिए सादर आभार। प्रयास करता हूँ और दुरुस्त करने का। सादर
आदरणीया नीलम उपाध्याय जी सादर वन्दन! उत्साहवर्धन के लिए सादर हार्दिक आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी ,सादरनमन! उत्साहवर्धन के लिए सादर हार्दिक आभार
आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी सादर नमन! हार्दिक आभार उत्साहवर्धन के लिए। व्यस्तता के कारण न रचनाकर्म हो रहा है न अध्ययन। यही वजह रही कि ओबीओ पर किसी भी आयोजन में सम्मिलित नहीं हो पाया। प्रयास रहेगा कि इस माह के उत्सवों में भाग लूँ। सादर
आदरणीय बसन्त कुमार शर्मा जी सादर नमन, हार्दिक आभार उत्साहवर्धन के लिए।
आदरणीय गुमनाम पिथौरागढ़ी जी ,अनुमोदन और उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार, नमन!
अच्छी ग़ज़ल है आदरणीय सतविन्द्र जी पर मिसरे अभी और बेहतर हो सकते हैं. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
आदरणीय सतविंदर जी, नमस्कार । बेहतरीन गजल हुई है । मुबारकबाद कुबूल करें ।
आ. भाई सतविंद्र जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
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