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नाम बड़ा है उस घर का
पहरा जिस पर है डर का
प्यास बुझाना प्यासे की
कब है काम समंदर का
बिना बात बजते बर्तन
दृश्य यही अब घर-घर का
बोल कहे और जय चाहे
क्या है काम सुख़नवर का?
महल दुमहले जिसके हैं
वही भिखारी दर-दर का।
'राणा' सच कहते रहना
रंग न छूूटे तेवर का।
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आ. भाई सतविंद्र जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
वाह वाह राणा साहब खूब ग़ज़ल कही..सादर
मतले का सानी मिसरा यूँ कर लें :-
'पहरा जिसपर है डर का'
आप मतले में क्या कहना चाहते हैं?भाव बताइये,मिसरा में बता दूँगा ।
आदरणीय समर कबीर जी ,सादर नमन! मतले के सानी के लिए भी मागर्गदर्शन की दरकार है। सादर निवेदन!
आदरणीय तेजवीर जी,उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार नमन!
आदरणीय श्याम नारायण जी हौंसलाफ़ज़ाई के लिए सादर आभार नमन!
आदरणीय मुहम्मद आरिफ जी,सादर नमन ! हौंसलाफ़ज़ाई के लिए सादर हार्दिक आभार
जनाब सतविन्द्र कुमार 'राणा' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
मतले का सानी मिसरा लय में नहीं है,देखियेगा ।
तीसरा शैर यूँ कर लें तो उचित होगा:
'बिन कारण बजते बर्तन
हाल यही है घर घर का'
हार्दिक बधाई आदरणीय सतबिंदर जी।बेहतरीन गज़ल।
'राणा' सच कहते रहना
रंग न छूूटे तेवर का।
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