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वफ़ा की क्यों उम्मीद मैनें लगाई
लिखी मेरी किस्मत में थी बेवफाई
जमीं पर मिटे वो जो चाहे जमीं को
जमीं में ही माँ जिसको देती दिखाई
दिखाई नहीं वार देता जुबाँ का
सलीके से उसने अदावत निभाई
अटकता नहीं है कोई काम उसका
रही मन में जिसके सभी की भलाई
जो हारे वही जीत जाता हो जिसमें
बता कौन-सी ऐसी होती लड़ाई
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आद0 सतविंदर भाई जी सादर अभिवादन।ग़ज़ल का बढिया प्रयास पर अत्यधिक मात्रा पतन से कहीं कहीं लय प्रभावित है। देखियेगा। इस प्रस्तुति पर बधाई आपको
जनाब सतविन्द्र कुमार जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
शिल्प पर और अभ्यास की ज़रूरत है ।
आ. भाई सतविंद्र जी, अच्छी गजल हुई है हार्दिक बधाई ।
बहुत खूब, अच्छे अशआर हुए हैं आदरणीय
अच्छी ग़ज़ल कही आदरणीय..सादर
वाह बेहतरीन ग़ज़ल .. बहुत बधाई.. |
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