थाहों में टटोलती कुछ, कहती थी
जाकर वहाँ फूलों की सुगन्ध में
नकली-कागज़ी मुस्कानों की उमंग में
क्या याद भी करोगे मुझको
बताओ न
स्मरण में सहज दोड़ती आऊँगी क्या ?
या, जाते ही वहाँ बन जाओगे वहाँ के
पराय-से अजीब अस्पष्ट परदेशी-बाबू तुम
नई मुख-आकृतियों के बीच देखोगे भी क्या
मुढ़कर, मद्धम हो रही इस पुरानी पहचान को
या सरका दोगे इसे स्मृतिपटल से
तुम मात्र मिथ्या कहला कर इसे
माना कि टूटा है हमारा वह बातों का क्रम
दूरियों को मापते होता है तुम्हें भी भ्रम
स्नेह के उलझे प्रसंगों के बीच मेरी प्रिय
इतना तो रखो प्राण-लोहे-सा विश्वास मुझ पर
स्वर मेरे मौन में भी हैं पास तुम्हारे
सात समुन्दर पार से है जगमगाता
सात युगों का वह भोला प्यार हमारा
सोचते-सोचते स्वप्न-सृष्टि में तुम्हें
धीमे अस्पष्ट शब्दों में करी हैं बातें कितनी
आँखों में खुमारी की लालिमा
लगता है तुम्हारी शैतान अंगुलियाँ
मेरे बालों में कुछ गूँथ रही हैं मानो
और मेरा हृदय मुझसे बहुत दूर कहीं
वहाँ पास तुम्हारे धड़क रहा है
तुम हो अपने समाज के कारागार में बंदी
मेरे भी पैर बँधे हैं आधुनिक जंजीरों में
कारागार और जंजीरों के बीच, प्रिय
यह कैसा रिश्ता है हमारा
कैसा है यह नाता हमारा *
परदेशी-बाबू कहकर मुझको मेरी प्रिय
न छेड़ो तार, न कुरेदो आज, गहरे में सीने में मेरे
कोई पुराना घाव अनछुआ रह जाना चाह्ता है
ऐसे में न जाने क्यूँ, तुम्हें खो देने की चिन्ता
यह ईश्वरहीन अपरिमयता आदतन
निचोड़ देती है मुझको, लुप्त हो जाती है चेतना
इस स्याह रात की मोम पिघल रही है
खयाल आता है गहरे समुन्दर में हूँ मैं
फिसलता हूँ फिसलते किनारे को पकड़-पकड़
मेरे प्यार, थाम लो, बुला लो, बुला लो मुझको
रख लो न मुझको अपने पास सदा के लिए
परदेशी शब्द कठोर है, जी बहुत घबराता है
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
* यह कैसा रिश्ता है हमारा, कैसा है यह नाता हमारा
यह भाव प्रिय चित्रा सिंह जी के गीत की ज़मीन से है
Comment
मेरे आदरणीय भाई समर जी, आदाब। आपने जिस प्रकार इस रचना की सराहना की है, सच मेरे पास शब्द नहीं हैं आपको धन्यवाद देने के लिए। आपकी प्रतिक्रिया से हमेशा प्रोतसाहन मिलता है।मुझको गर्व है कि आप मेरी रचना पर आते हैं।
रचना की सराहना के लिए हृदयतल से आभार, आदरणीय बृजेश जी
रचना की सराहना के लिए हृदयतल से आभार, आदरणीया नीलम जी।
आदरणीय तस्दीक अहमद साहब, आदाब। रचना की सराहना के लिए हृदयतल से आभार।
आदरणीय विजय जी आपकी कवितायेँ शुरू से लेकर अंत तक पाठक को बांध लेती हैं..प्रस्तुत कविता भी उसी श्रेणी में शोभायमान है...सादर
आदरणीय विजय निकोर जी, नमस्कार। बहुत ही सुन्दर रचना की प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करें ।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,क्या कहूँ इस रचना के बारे में,शब्द नहीं मिल रहे इसके अनुरूप,एक पंक्ति को विस्तार देकर अपने इसे एक गम्भीर और प्रभावशाली रचना बना दिया,अरूज़ की ज़बान में इसे तज़मीन कहा जाता है,इस रचना की एक एक पंक्ति प्रभावित करने वाली है,और अंतिम पंक्ति "परदेशी शब्द कठोर है, जी बहुत घबराता है" ने तो मानो दिल ही लूट लिया,मुग्ध हूँ आपकी रचना पढ़कर,दिन बना दिया आज का,बहुत ख़ूब वाह, इस बहतरीन सृजन के लिये दिल से ढेरों बधाई स्वीकार करें ।
मुहतरम जनाब विजय निकोरे साहिब, उम्दा जज़्बाती रचना हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं |
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