तपती धूप,
जर्जर शरीर,
फुटपाथ का किनारा,
बदन पर पसीना,
किसी के आने के इन्तजार में...
पथराई सी आँखें,
घुटनों पर मुँह रखे-
एक टक, एक ही दिशा में देख रही थीं...
- ना जाने कब से?
यूँ तो सामने दो छतरी पड़ी थीं, पर
कड़ी धूप में जल-जल के,
बदन काला पड़ गया था ....
रंग बिरंगे रूमाल -
सजे तो बहुत थे, पर
जिस्म पसीने में लथपथ था....
सफेद बाल,
तजुर्बों की गबाही दे रहे थे....
जिस्म पर लटकती खाल -
सूखे वृक्ष पर टंगी लोई के समान लगी !
नजर का मोटा चश्मा,
एक लकड़ी के सहारे टिका था...
चंद सिक्के,
उदास पड़े थे !
कैसी बेबसी थी ?
क्या ये कोई उमर थी ?
इतना संघर्ष -
सिर्फ दो वक्त की रोटी के लिए !!
रिक्शा खींचता है एक बूढ़ा शरीर-
क्या सो गया है बहू बेटों का जमीर ?
झुकी कमर,
लकड़ी का सहारा,
उस पर भारी गठरियाँ लिए...
चली जा रही थी !!
ना जाने वो...किसकी माँ थी ?
निराश दिलों में आशा का समन्दर देखकर,
आज नम हो गयीं आँखें ये मंजर देखकर!!
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
वाह खूबसूरत अल्फाज पिरोये हैं आपने दर्द में डुबोकर
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