इक आवारा तितली सी मैं
उड़ती फिरती थी सड़कों पे...
दौड़ा करती थी राहों पे
इक चंचल हिरनी के जैसे ...
इक कदम यहाँ इक कदम वहाँ
बेपरवाह घूमा करती थी...
कर उछल कूद ऊँचे वृक्षों के
पत्ते चूमा करती थी...
चलते चलते यूँ ही लब पर
जो गीत मधुर आ जाता था...
बदरंग हवाओं में जैसे
सुख का मंजर छा जाता था...
बीते पल की यादों से फिर
मैं मन ही मन भरमाती थी...
इठलाती थी बलखाती थी
लहराती फिर सकुचाती थी...
हैं आज कदम कुछ ठहरे से
गुमसुम से सहमे सहमे से...
डर डर के बढते हैं ऐसे
जैसे निकले हों पहरे से...
ना गीत जुुुबा पर है कोई
ना जाम हैं शोखनिगहों के...
बस इक टक देखा करती हूँ
कंकड पत्थर इनराहों के...
हैं कदम बड़े डगमग डगमग
यूँ संभल संभल के चलते हैं...
इन ऊँची नीची राहों पर
आगे बढने से डरते हैं...
चलते चलते रूक जाती हूँ
ना जाने क्या हो जाता है...
अधरों पे हँसी लिए ये मन
अंदर अंदर घबराता है...
सबको तो बहुत लुभाती हैं
पर मुझे सताती हैं हर पल...
पांवों में बेड़ी लगती हैं
ये ऊँची एड़ी कीं चप्पल..... !!
( मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय महेन्द्र जी नमस्कार,
कविता पर आपकी उपस्थिति व सराहना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ...लिखना सार्थक हुआ !!
आदरणीय सुरेन्द्र जी नमस्कार , बहुत-बहुत धन्यवाद ।।
आदरणीय सुशील जी नमस्कार
आपकी शिर्कत व हौसला अफजाई केलिए बहुत-बहुत धन्यवाद ।।
आदरणीय कबीर जी नमस्कार आपकी शिर्कत , हौसला अफजाई व मार्गदर्शन के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया...
आदरणीया प्रतिभा जी नमस्कार,
बहुत बहुत धन्यवाद ।
//पांवों में बेड़ी लगती हैं
ये ऊँची एड़ी कीं चप्पल..... !!// इन दो पंक्तियों में आपने बहुत कुछ कह दिया है आदरणीया रक्षिता जी। बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
आद0 रक्षिता जी सादर अभिवादन। बढ़िया सृजन। लययुक्त । बहुत बहुत बधाई देता हूँ इस सृजन पर।सादर
वाह आदरणीया रक्षिता सिंह जी सृजन में अंतर्मन की व्यथा का मोहक चित्रण हुआ है। इस प्रवाहमयी प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
मुहतरमा रक्षिता सिंह जी आदाब,बहुत सुंदर रचना है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
चौथी पंक्ति में 'जैसे' को " जैसी"करना उचित होगा ।
एक दो जगह टंकण त्रुटियाँ देख लें ।
बहुत खूब, बढ़िया प्रस्तुति रक्षिता जी बधाई स्वीकार करें
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