खरा सोना - लघुकथा –
आज मेरा अखबार नहीं आया था तो सुबह नाश्ते के बाद अपने मित्र जोगिंदर सिंह के घर अखबार पढ़ने की गरज़ से टहलते टहलते पहुँच गया।
जैसे ही लोहे का गेट खोल कर अंदर घुसा तो देखा कि जोगिंदर का बेटा धूप में खड़ा किताब पढ़ रहा था।
मैं उससे इसकी वज़ह पूछने ही वाला था कि जोगिंदर ने आवाज़ लगा दी,"आजा भाई मलिक, क्या सही वक्त पर आया है। चाय आ रही है"।
मैंने कुर्सी जोगिंदर के पास खींचते हुए पूछा,"भाई, यह तेरा छोरा इतनी तेज़ धूप में क्यों पढ़ रहा है। इससे क्या दिमाग तेज़ चलता है"?
"अरे नहीं यार उसे सज़ा मिली है"?
"ओह यार फूल से बच्चे को इतनी सख्त सज़ा किस वास्ते"?
"मुझे उसकी शिकायत मिली कि वह कॉलोनी के छोरों के साथ कंचे खेल रहा था"?
"कमाल है यार, बच्चा ही तो है। इस उम्र में नहीं खेलेगा तो कब खेलेगा"?
"मेरे दोस्त, खेलने की मना नहीं है। मैं तो खुद उसे खेलने के लिये बढ़ावा देता हूँ परंतु अनुपयोगी खेल कूद का पक्षधर नहीं हूँ"।
"यार, तेरे छोरे का तो समाज में बड़ा नाम है। घर घर में इसी की चर्चा है| पढ़ाई में भी अब्बल है। खेलों में भी खूब इनाम लाता है। तेरा छोरा तो सोना है खरा सोना"।
"मलिक साब, सोने को भी आभूषण में ढालने के लिये ठोंकना ,पीटना और तपाना पड़ता है"।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर साहब जी।
जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब,बहुत उम्दा लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक आभार आदरणीय नीलम उपाध्याय जी।मेरे विचार से कंचे खेलने की अनुमति तो कोई भी पिता नहीं देगा।
अनुशासनप्रिय होना तो अच्छी बात है लेकिन इसके पीछे बच्चों का बचपन छिन जाता है। यह बात तब समझ आती है जब बच्चों का बचपन बीत जाता है। अच्छी लघुकथा के लिए बधाई आदरणीय तेजवीर सिंह जी।
हार्दिक आभार आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।कुछ लोग अति अनुशासन प्रिय होते हैं। एक कारण यह भी हो सकता है।
आदरणीय तेजवीर जी आदाब,
आजकल हमारे समाज में संतान को लेकर काफी अपेक्षाएँ बढ़ गई है । सारी उम्मीदें और सपनें हम संतान में देखते हैं । इस चक्कर में हम बच्चों को खेलने-कूदने भी नहीं देते हैं । उनके खेल-कूद छीन लेते हैं । बच्चों के हर सुख-चैन छीनकर उन्हें सुविधाएँ प्रदान कर रहे हैं । शायद आपका मित्र भी अति महत्वाकांक्षी है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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