दर्द फिर उठा है। दर्द बहुत तेज़ है। कहते हैं, दर्द का हद से गुज़र जाना दवा है। ऐ दर्द गुज़र जा आज अपनी हदों से तू। ज़रा मैं भी तो देखूँ तेरा दवा हो जाना।
दर्द सचमुच बड़ा बेदर्द है। वह सचमुच बढ़ता जाता है; अपनी हदों को पार करता हुआ। अब नही, अब नही.......। अब बर्दाश्त नही होता। लेकिन दर्द तो बेदर्द है। बढ़ता ही जा रहा है; बर्दाश्त की हदों को पार करता हुआ। अब लगता है, जैसे सिमट आया है एक ही जगह।
दिल!
आह, दर्द-ए-दिल। सिमट आता है एक ही मुकाम पर। लगता है जैसे दिल किसी शिकंजे में कसा जाता है। दम है कि घुटा जा रहा है। सांस लेना भी दुश्वार है अब तो। बोझल होती सांसें। बोझिल होती आंखे। बोझिल होती आंखों के सामने एक क़यामत बरपा हो जैसे। कुछ धुंधले धुंधले से नज़ारे तेज़ी से गुजरते जा रहे है। कुछ रौशनियाँ कुछ अंधेरे। बदहवास लोग बदहवास आवाज़ें। स्ट्रेचर के चक्कों की चें चें। जल्दी करो, जल्दी करो ! ई सी जी !! मॉनिटर !!! जल्दी करो, जल्दी करो ! इंजेक्शन लाओ। मेडिसिन लाओ। क्विक ! क्विक !!
आवाज़ें सिमट रही हैं, नज़ारे सिमट रहे हैं। सभी रंग, रौशनियाँ, धब्बे, धुंधले धुंधले। दर्द सिमटता जा रहा है। अहसास सिमटते जा रहे हैं। आंखे बंद। क्या यही मौत है? क्या यही निजात है? क्या यही दवा है? कुछ मत सोचो सो जाओ। कुछ मत सोचो सो जाओ। कितना सुकून है... कितना सुकून.......
धीरे धीरे खुलती पलकें... कितनी हल्की हैं? आह, रौशनी.... कितनी मुलायम है।
क्या मैं जन्नत में हूँ? जहन्नुम में इतना सुकून कहाँ?
"अब कैसा लग रहा है?" कितनी मीठी आवाज़ है। जैसे कानो में कोई शहद घोल रहा है। जैसे दूर कहीं कोई साज़ बज रहा हो। क्या ये किसी हूर की आवाज़ है। पलकें उठती हैं। हूर कैसी होती हैं? अरे ! इस हूर ने सफेद लिबास क्यों पहन रखा है। इसका चेहरा भी कितना मामूली सा है। ये तो धोखा है। हूर को तो गैर मामूली होना चाहिए......
"तुम ठीक हो, कुछ नही हुआ तुम्हे। बस, डिप्रेशन है।" यार ये तो हॉस्पिटल का बिस्तर है। फिर पूछताछ, "कोई स्ट्रेस है? कोई परेशानी? क्या हुआ था? क्या हुआ है?......" लम्बी पूछताछ जैसे कोई पुलिस स्टेशन हो।
"ठीक है। अब तुम ठीक हो। घर जा सकते हो। ये बिल जमा कर दो।"
बिल।
हॉस्पिटल का बिल। मैं हाथ मे लेकर बिल देखता हूं।
दिल बैठने लगा है। सांसे डूबने लगी हैं। आह ! दर्द.....
ऐ दर्द इस बार तो अपनी सच्चाई दिखा । ऐ मौत ! इस बार तो अपनी वफादारी दिखा। वरना हॉस्पिटल का ये बिल मुझे जीने नही देगा।
(मौलिक एवम अप्रकाशित)
Comment
बेहतरीन भावपूर्ण, यथार्थपूर्ण सृजन। आपकी अपनी विशिष्ट शैली। हार्दिक बधाई मुहतरम जनाब मिर्ज़ा ह़ाफ़िज़ बेग साहिब।
बहुत बढ़िया मिर्ज़ा साहब...बड़ी ही सार्थकता से आपने अपनी बात कही है लघुकथा में..बधाई
आदरणीय मिर्ज़ा हफ़ीज़ बैग जी हॉस्पिटल का सजीव चित्रण करती सार्थक लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई सादर
जनाब मिर्ज़ा हफ़ीज़ बैग साहिब आदाब,उम्दा लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से गैर सरकारी अस्पतालों की लूट खसोट वाली प्रवति पर तीखा प्रहार करती हैं,हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय सरजी।
हार्दिक बधाई आदरणीय मिर्ज़ा हाफ़िज़ बेग जी।आज की चिकित्सा व्यवस्था पर कटाक्ष करती बेहतरीन लघुकथा।
आदरणीय मिर्जा हाफिज बेग साहब, नमस्कार । आजकल तो सुपर स्पेशलिटी के नाम पर खुलने वाले अस्पताल फाइव स्टार हॉस्पिटल हैं और इसी स्टेटस की फीस वसूल करते हैं। अच्छे विषय पर बेहतरीन लघुकथा की प्रस्तुति । बधाई स्वीकार करें ।
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