बहुत अंधेरा है। सुबह बहुत दूर है अभी। अमेरिका से अभी चली हो शायद...
नींद नहीं आती। आये भी कैसे? पेट खाली नहीं, भविष्य तो खाली है। खाली पेट नींद भले आ जाये; लेकिन भविष्य की सुरक्षा की चिंता कब सोने देती है? माँ बाप के लाखों फूंक कर, रात और दिन की तपस्या से व्यवसायिक डिग्री हासिल करने के बाद भी यह साल दो साल के एग्रीमेंट? इससे तो बेहतर था पकोड़े तलता। लेकिन वहां भी पहले से जमे लोग आपका स्वागत नहीं करते... “यहां नहीं, यहां नहीं। हम इतने बरसों से यहां झक मार रहे हैं क्या?”
“एक तो धंधा वैसे ही मंदा है। फिर हफ्ता वसूलने वाले, गली के गुंडे हों या सरकारी गुंडे। उन्हे तो वसूली पूरी चाहिये।“
“ऐसे मे एक और कॉम्पिटीटर?”
“कैसे चलेगा? पकौड़े तलने वाले जब खाने वालों से ज़्यादह होने लगेंगे तो धंधा कैसे चलेगा।“
हाँ, तुम सच कहते हो जब रोज़गार ही नहीं तो बाज़ार में खरीदार कहाँ से आयेंगे?
वह करवट बदलता है...
‘यह एक चक्रव्यूव्ह है,’ वह सोंचता है, ‘अभिमन्यु तो चक्रव्यूव्ह से निकल नहीं पाया। क्या मैं निकल पाऊंगा....’
वह करवट बदलता है, सुबह के इंतज़ार में....
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय मिर्ज़ा हाफिज बेग जी, नमस्कार। आज की ज्वलंत समस्या - बेरोजगारी पर कटाक्ष करती बहुत ही उम्दा लघुकथा। हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
आपने रोज़गार से जुड़ी समस्या पर कथा जरिये प्रकाश डाला है जीवन से जुड़े चक्रव्यूह को भेदने के लिये धैर्य व भरोसे का होना ज़रूरी है ।हर रात के बाद सुबह आती है ,बधाई आद० हफ़ीज़ बैग जी ।
जनाब हफ़ीज़ बैग साहिब आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
स्थायी संतोषजनक रोज़गार की समस्याओं और पहेलियों और नेताओं के बड़बोलेपन पर बढ़िया कटाक्ष करती रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब मिर्ज़ा ह़ाफ़िज़ बेग साहिब। थोड़ा और समय देकर टंकण त्रुटियाँ सुधारते हुए इसमें अधिक निखार लाया जा सकता है, ऐसा लगा। सादर।
आद0 मिर्ज़ा हाफ़िज़ सादर अभिवादन। बढ़िया लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार कीजिये।
हार्दिक बधाई आदरणीय मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग जी। आज के हालात पर बेहतरीन कटाक्ष करती सुंदर लघुकथा।
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