हँस पड़ती हूँ ,
अक्सर मैं,
मुझे तोड़ने में
मशगूल,
अपनी अमोल ऊर्जा,
व्यर्थ करते उन,
मिथ्या हितैषियों को
देखकर,
टूटन को नित,
यूँ पान करती
आई हूँ कि,
ये गरल तो मेरी
हर श्वांस में
घुला-मिला है,
इसे नित जीकर....
कि इसके बिना,
हल्की-हल्की सी,
श्वांसों पर यकीं
ना होना
लाजिमी है,
तिल भर भी तो,
नहीं बची है,
कोई जगह
जहाँ किसी को
अवसर मिले,
मुझे आहत
करने का,
सदा सर्वदा,
झेलती आई ,
उपभोग, वैमनस्य,
घृणा, वितृष्णा, कुंठा,
स्वार्थ और अहम् के
विषैले - तीखे दंश,
पीती आई ,
उपेक्षाओं के ,
दर्दीले सैलाब,
अँजुरी भर-भर,
छक कर,
कि शिव की तरह,
विष पान का प्रभाव
नीलम् कर गया है
मेरी उच्छ्वासों को,
जिनसे है,
आह निकलती सदा,
टूटन की,
बंजर ठूंठ जो,
खिला नहीं सका
जो इक कोंपल भी,
ताने कसता मानो
मुझपर वह भी,
हँसती हूँ ,
उनकी ऩाकामी पर,
कि वे अचरज करते हैं,
मेरी निर्मल हँसी पर,
पर वे नहीं जानते,
ये उसी टूटन से
उपजी है,
जो उन्होंने,
सदाशयता से
बिखेर दी थी,
मेरे ऊपर....
लेकिन यही टूटन,
मेरे मन की
कोमल- संवेदी,
उर्वरा माटी पर,
मेरी भावनाओं की,
निश्चल संगत में,
वेदनासिक्त अश्रुओं से,
नित सिंचित हो,
निर्मल हँसी को ,
असंख्य रूपों में,
पुष्पा गई ...!!
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. अपर्णा जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीया अर्पणा जी, अच्छी भावपूर्ण रचना हुयी है। बधाई।
जनाब समर साहाब, आदरणीया प्रतिभा जी, जनाब मोहम्मद आरिफ जी- मेरी कविता की पसंदगी के लिये आप सभी का तहेदिल शुक्रिया।
मैं पटल पर और समय देने का यथासंभव प्रयास करती हूँ । आपके सुझाव ह्रदयग्राह्य हैं।
बहुत ही सुन्दर रचना एक एक शब्द भावों से पगा है हार्दिक बधाई प्रिय अर्पणा जी
आदरणीया अर्पणा जी आदाब,
बहुत ही बेहतरीन कविता । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । मैं आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की बात से सहमत हूँ ।
मुहतरमा अर्पणा शर्मा जी आदाब,अच्छी कविता है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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