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अफ़सुर्दा सा लम्हा ....


अफ़सुर्दा सा लम्हा ....

अफ़सुर्दा से लम्हों में
लफ़्ज़ भी उदास हो जाते हैं
बीते हुए लम्हों की लाशें
अपने शानों पर लिए लिए
चीखते हैं
मगर खामोशी की क़बा में
उनकी आवाज़ें
घुट के रह जाती हैं

रोज़ो-शब्
उनके ख़्यालों से
गुफ़्तगू होती है
लफ़्ज़ कसमसाते हैं
चश्म नम होती है
सैलाब लफ़्ज़ों का
हर तरफ है लेकिन
दर्द को तसल्ली
कहाँ होती है

लफ़्ज़ों के शह्र में
अफसानों की मीनारें
कहकहे लगाती हैं
किसी बुत की
अकीदत में
हर लफ्ज़
तर्ज़े-सुखन बन जाता है
धड़कनों का शोर
इज़हारे मोहब्बत का
अस्लूब बन जाता है
फिर भी

न जाने क्यूँ
वो अफ़सुर्दा सा लम्हा
कहकहे लगाता है

अफ़सुर्दा=उदास , रोज़ो-शब =दिन रात ,तर्ज़े-सुखन=काव्य शैली

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on September 1, 2018 at 8:00pm

आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब .... सृजन पर आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on September 1, 2018 at 8:00pm

आदरणीय  narendrasinh chauhanजी सृजन आपकी प्रशंसा का आभारी है।

Comment by Samar kabeer on August 30, 2018 at 12:12pm

जनाब  नरेंद्र सिंह चौहान जी आदाब,पहले भी आपसे निवेदन कर चुका हूँ कि दो या तीन शब्दों में टिप्पणी देना ओबीओ की परिपाटी नहीं,ऐसा सोशल मीडिया पर ही ठीक है,इस मंच पर ऐसा करना उचित नहीं है,यहाँ रचनाकार को संबोधित करते हुए उसकी रचना की या तो तारीफ़ की जाती है या आलोचना,और ये सब सीखने सिखाने के उद्देश्य के लिए किया जाता है,आपसे एक बार फिर निवेदन है कि आप मंच की गरिमा का ध्यान रखेंगे और ऐसी दो या तीन शब्दों की टिप्पणी देने से परहेज़ करेंगे ।

Comment by Samar kabeer on August 30, 2018 at 12:04pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by narendrasinh chauhan on August 27, 2018 at 5:21pm

बहोत खूब। ..

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