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है दूर मन्ज़िल तिमिर घनेरा, अगर कलम की डगर कठिन है
नहीं थकेंगे कदम हमारे हमारा व्रत भी मगर कठिन है
चलो उठाओ तमाम बातें जवाब सारा कलम ही देगी
चले भले ही कदम अभी कम पता है हमको सफर कठिन है
मना ले जश्नां उड़ा मज़ाकाँ ज़माने दूँगा सलाम लाखों
सलाम वापस इधर ही होंगे हालाँकि तुमसे समर कठिन है
न पूछ काहें मैं अक्षरों की ये धार सब पर बिखेरुँ पल पल
है इक हिमालय यहाँ भी ग़म का सो आँसुओं की लहर कठिन है
दुआएं उनको जो साथ में हैं दुआ उन्हें भी जो घात पर हैं
मगर नहीं हूँ हताश किंचित प्रयास का हर असर कठिन है
यूँ ही सरोवर में खिल गया हो ये ऐसा पंकज नहीं कदाचित
निगाह जिसमें नहीं हो पानी वहाँ पे इसका बसर कठिन है
मौलिक-अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शेख शहज़ाद सर बहुत बहुत आभार
अंधकार में दूर लक्ष्य और कलम का साथ और सतत प्रयास। बेहतरीन सृजन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय पंकज कुमार मिश्रा 'वात्स्यायन' साहिब।
आदरणीय बाऊजी प्रणाम।
आपके सुझाव के अनुरूप सुधार करता हूँ
आदरणीय अजय जी बहुत आभार
मेरे कहे को मान देने के लिए धन्यवाद ।
परम् आदरणीय कबीर सर क्षमा प्रार्थी हूँ. आइन्दा से इस बात काखयाल रखूँगा.
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
मतले के दोनों मिसरों में "गर" के क़वाफ़ी दोषपूर्ण हैं, किसी एक मिसरे का क़ाफ़िया बदलने का प्रयास करें ।
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बहुत सुन्दर रचना...
हार्दिक बधाई...//
भाई अजय कुमार शर्मा जी,इतनी छोटी टिप्पणी देना ओबीओ की परिपाटी नहीं है,ऐसा सोशल मीडिया पर चलता है, यहाँ नहीं,यहाँ पहले रचनाकार को आदर से सम्बोधित करते हैं,फिर उसकी रचना के गुण दोष बताये जाते हैं,कृपया मंच की गरिमा का ध्यान करें यही निवेदन है ।
बहुत सुन्दर रचना...
हार्दिक बधाई...
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