आपकी ओर से जब पहल हो गई
जिंदगी मेरी' कितनी सरल हो गई
उस तरफ आँख से एक मोती गिरा
इस तरफ आँख मेरी सजल हो गई
आपके रूठने का ये’ हासिल रहा
गुफ्तगू कम से’ कम, पल दो’ पल हो गई
घर हमारे पड़े जब कदम आपके
झोंपड़ी अपनी’ जैसे महल हो गई
प्यार हमने किया कैसे’ इजहार हो
थी ये’ मुश्किल मगर आज हल हो गई
अधखिली थी कली प्रेम की कल तलक
देखिये अब वो’ खिलकर कमल हो गई
चंद मिसरे लबों पर लरजते रहे
धीरे-धीरे मुकम्मल गजल हो गई
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आ. भाई बसंत जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई।
आदरणीय Samar kabeer जी शुभ संध्या, आपकी इस्लाह का हमेशा ही मुझे बेसब्री से इन्तजार रहता है, वाह क्या बात है, बहुत सुंदर
अभी सुधार लेता हूँ, ये ऐब-ए-तनाफ़ुर अभी तक पकड में नहीं आया है, प्रयास अवश्य कर रहा हूँ
सादर नमन आपको .
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी ...ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई....
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'उस तरफ आँख से एक मोती ढला'
इस मिसरे में 'ढ़ला' की जगह "गिरा" करना उचित होगा ।
'बात तो कम से’ कम एक पल हो गई'
इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है 'बात तो' इसे यूँ करलें तो ऐब निकल जायेगा:-
'गुफ़्तगू कम से कम एक पल हो गई'
'
ये मुहब्बत थी’ जो अधखिली सी कली
अब ज़माने में खिलकर कँवल हो गई'
इस शैर को यूँ कर लें तो गेयता बढ जायेगी:-
"ये महब्बत जो थी अधखिली सी कली
देखिये अब वो खिल कर कँवल हो गई'
दोनों मिसरे लबों से लरजने लगे
धीरे-धीरे ये पूरी गजल हो गई'
इस शैर को यूँ कर लें तो भाव स्पष्ट होगा,गेयता बढ़ जायेगी:-
'चन्द मिसरे लबों पर लरज़ते रहे
धीरे धीरे मुकम्मल ग़ज़ल हो गई'
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