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हैंगर में टंगे सपने ....

हैंगर में टंगे सपने ....

तीर की तरह चुभ जाता है
ये
मध्यम वर्ग का शब्द
और
किसी की हैसियत को
चीर- चीर जाता है

किसी जमाने में
मध्यम वर्ग के लिए
पहली तारीख
किसी पर्व से कम न थी
पहली तारीख तो आज भी है

मगर
उसके साथ खुशियां कम
और चिन्ताएँ अधिक हैं

पहली तारीख
दिल चाहता है
आज का सूरज सो जाए
रात कुछ लम्बी हो जाए
पानी,बिजली, टेलीफोन,मोबाईल के
भुगतानों की तिथियाँ
सर में हथौड़े की तरह
चोट करती हैं
धोबी,मेहतरानी,और काम वाली बाई
अपने मासिक वेतन की मांग करती हैं
ऊपर से
कार की किश्त,मकान का किराया , बच्चों की फीस
महीने भर का राशन ,
पेट्रोल,रिश्तेदारी,सामजिक दायित्व
पूरे परिवार की फरमाइशें
उस पर कोड़ में खाज़
आयकर की कटौती
वेतन तो
ऊँट के मुंह में जीरे के समान
हाथ में आता है
गिन भी नहीं पाते
कि झट से निकल जाता है
इसीलिये
हर बार
कैलेंडर की एक तारीख
किसी दैत्य से कम नहीं लगती
ज़िम्मेदारियों के पाँव
हर बार
चादर से

बाहर निकल जाते हैं

आँखों की बंद अलमारी में
जाने कितने सपने
हैंगर में टंगे रहते हैं
कभी इन सपनों का हैंगर
खाली होता ही नहीं
लोन की कैंची
इन्हें लहूलुहान करती रहती है
मगर

कम्बख़्त ये सपने
कभी मरते ही नहीं 

सपने
मध्यम वर्ग की
आत्मा हैं , उसकी साँसें हैं
वो
सपनों में जीता है
सपनों के लिए मरता है
उधार के घोड़ों पर
सपनों से लड़ता है
इस भाग दौड़ में
सपनों को पूरा करते -करते
वो स्वयं
सपना हो जाता है
मगर
ये
हैंगर में टंगे सपने
कभी
कम
नहीं होते

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on October 2, 2018 at 2:58pm

आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब ... सर सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार। सर इनके पास सब कुछ होता है फिर भी सपने अधूरे होते हैं। सर माध्यम टंकण त्रुटि है मैं एडिट कर देता हूँ। आपका इस हेतु दिल से शुक्रिया।

Comment by Sushil Sarna on October 2, 2018 at 2:52pm

आदरणीय Dr Ashutosh Mishra'जी सृजन को मान देने का दिल से शुक्रिया।

Comment by Sushil Sarna on October 2, 2018 at 2:52pm

आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज'जी सृजन को मान देने का दिल से शुक्रिया।

Comment by Samar kabeer on October 1, 2018 at 10:47pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,कविता बहुत उम्दा है, लेकिन बात को मुख़्तसर भी किया जा सकता था,एक बात ये कि मध्यम वर्ग के पास इतना सब कुछ होता है जो अपने उनकी मजबूरियों में दर्शाया है,मेरे ख़याल में,इन लोगों के पास काम वाली बाई,कार वग़ैरह नहीं होती?

'माध्यम' या "मध्यम"?

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 1, 2018 at 8:46pm

हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील जी।।बढ़िया चित्रण किया है 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 29, 2018 at 7:22pm

बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से माध्यम वर्ग के दर्द को शब्दों में ढाला है आदरणीय...बधाई

Comment by Sushil Sarna on September 27, 2018 at 6:44pm

आदरणीय वीरेन्द्र वीर मेहता जी सृजन पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on September 27, 2018 at 6:43pm

आदरणीय नरेंद्र चौहान जी सृजन को मान देने का दिल से शुक्रिया।

Comment by Sushil Sarna on September 27, 2018 at 6:42pm

आदरणीय मो.आरिफ साहिब , आदाब ... सृजन पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार।

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on September 27, 2018 at 4:25pm

हैंगर में टंगे सपने..... लाजवाब सुंदर रचना, आदरणीय सुशील सरना जी. बधाई स्वीकारें

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