चिता पर चाचाजी का शरीर लकड़ियों से ढंका हुआ पड़ा था और उसको आग लगाने की तैयारी चल रही थी. चाचाजी उम्र पूरा करके गुजरे थे इसलिए घर में बहुत दुःख का माहौल नहीं था लेकिन उनकी सेहत के हिसाब से अभी कुछ और साल वह सामान्य तरीके से जी सकते थे. अभी भी सारा परिवार एक में था इसलिए पूरा घर वहां मौजूद था. चचेरे भाई ने चिता जलाने के लिए जलती फूस को हाथ में लिया और चिता के चारो तरफ चक्कर लगाने लगा.
कुछ ही पल में चिता ने आग पकड़ ली और वह एक किनारे से एकटक जलती चिता को देखता रहा. चाचाजी से पिछले कई सालों से उसकी बातचीत बंद थी और उनके जिद्दी स्वभाव के चलते आपस में रिश्ता सुधरने की कोई गुन्जाईस भी नहीं थी. घर के लोगों के साथ साथ उसने भी शुरू के सालों में उनके साथ सम्बन्ध सुधारने की कोशिश की लेकिन हर बार बात और खराब होती गयी. सब लोग उसे समझाते कि चाचाजी का स्वभाव ही ऐसा है, उनकी सोच के उलट कुछ भी करने की मत सोचो. लेकिन उसे आत्मसम्मान को लगी ठेस ने उसे उनसे बहुत दूर कर दिया.
आग पूरा जोर पकड़ चुकी थी और अब चाचाजी का जलता शरीर उसे दिखाई दे रहा था. उसके मन में भी चाचाजी को लेकर जो विरोध था, उसपर धीरे धीरे मंथन चल रहा था. अचानक चटाक की आवाज आयी, उसने देखा आग से कोई हड्डी चटक कर टूट गयी. एकदम से उसकी आंख में पानी आ गया, उसके मन में जमी हुई बर्फ भी चटक गयी. धीरे से उसने जलती हुई चिता की तरफ अपने हाथ जोड़े और वापस घरवालों की तरफ चल दिया.
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
जनाब विनय कुमार जी आदाब,बहुत उम्दा लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार जी। बेहतरीन लघुकथा।परिवार में कई बार इस तरह की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं कि जीवन भर सुलझ नहीं पाती लेकिन मरणोपरांत केवल पश्चाताप रह जाता है।
आ. विनय जी, एक चिंतनपरक कथा हुयी है । हार्दिक बधाई ।
रिश्तों की चिता, चिंता की चिता, चाचा की चिता और अंतिम-संस्कार-अवधि में स्वाभाविक आत्मसिंहावलोकन! वाह, बेहतरीन गंभीर सृजन। बढ़िया शिल्प। हार्दिक बधाई आदरणीय. विनय कुमार साहिब।
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