212 212 212 212
जिंदगी रफ़्ता रफ़्ता पिघलती रही ।
आशिकी उम्र भर सिर्फ छलती रही ।।
देखते देखते हो गयी फिर सहर ।
बात ही बात में रात ढलती रही ।।
सुर्ख लब पर तबस्सुम तो आया मगर ।
कोई ख्वाहिश जुबाँ पर मचलती रही ।।
इक तरफ खाइयाँ इक तरफ थे कुएं ।
वो जवानी अदा से सँभलती रही ।।
जाम जब आँख से उसने छलका दिया ।
मैकशी बे अदब रात चलती रही ।।
देखकर अपनी महफ़िल में महबूब को।
पैरहन बेसबब वह बदलती रही ।।
यूँ ही ठुकरा गया हुस्न जब इश्क़ को ।
तिश्नगी उम्र भर हाथ मलती रही ।।
उस परिंदे की फितरत है उड़ना बहुत ।
बे वज्ह आपको बात खलती रही ।।
बच गए हम तो क़ातिल नज़र से सनम ।
मौत आंगन में आकर टहलती रही ।।
रेत मानिंद सहरा में वो हाथ की ।
मुट्ठियों से हमारी फिसलती रही ।।
दिल जलाने की साजिश लिए साथ में ।
वो हमारी गली से निकलती रही ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
- मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ. भाई नवीन जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आ0 लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर साहब तहेदिल से शुक्रिया ।
आ0 श्याम नारायण वर्मा साहब बहुत बहुत हार्दिक आभार ।
आ0 तेजवीर सिंह साहब तहेदिल से शुक्रिया।
आदारणीया वी ऍम वृष्टि जी ग़ज़ल तक आने के लिए बहुत बहुत आभार ।
आ0 कबीर सर सादर प्रणाम । आपकी इस्लाह के अनुसार ग़ज़ल के कुछ शेर में परिवर्तन कर दिया है । आप जैसे गुरु अत्यंत दुर्लभ हैं । आपकी कृपा ऐसे ही बनी रहे तो यह नचीज भी थोड़ा थोड़ा ग़ज़ल को समझने लगा है ।
सादर नमन ।
एक बात और सर जैसे शब्द गैर इरादतन है वैसे साजिशन क्या नहीं हो सकता । इसको लेकर कन्फ्यूजन था । यद्यपि आपकी बात को मैं आँख बन्द करके मान लिया ।आप जो कहते वह बिलकुल सहीह होगा ।
सादर नमन के साथ आभार ।
एक बात और,यहाँ सब एक दूसरे को आदरणीय,मुहतरम, या जनाब कहकर सम्बोधित करते हैं,आप भी इस परम्परा को निभाने में सहयोग करें,ऐसी आशा है ।
मुहतरमा,ये एक सीखने सिखाने का मंच है, यहाँ हर सदस्य गुरु है और हर सदस्य शिष्य,जो जिसको आता है वो दूसरे को सिखा देता है,आप रचनाओं पर आई टिप्पणियां ध्यान पूर्वक पढ़ें तो बहुत कुछ सीखने को मिल जायेगा,शुभेच्छाएँ ।
जनाब v.m."prishth" जी आदाब,पहली बार मंच पर आपको देख रहा हूँ ,आपका स्वागत है।
संक्षिप्त टिप्पणी। करना सोशल मीडिया पर चलता है, ये ओबीओ की परिपाटी नहीं है,यहाँ पहले रचनाकार को आदर से उसका नाम लेकर सम्बोधित करते हैं,उसके बाद उसकी रचना की आलोचना या तारीफ़ की जाती है,आपसे सहयोग की उम्मीद है ।
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