2122 2122 2122 212
हर दुआ पर आपके आमीन कह देने के बाद
चींटियाँ उड़ने लगीं, शाहीन कह देने के बाद
आपने तो ख़ून का भी दाम दुगना कर दिया
यूँ लहू का ज़ायका नमकीन कह देने के बाद
फिर अदालत ने भी ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली
मसअले को वाक़ई संगीन कह देने के बाद
ये करिश्मा भी कहाँ कम था सियासतदान का
बिछ गईं दस्तार सब कालीन कह देने के बाद
फूल, तितली, चाँद-तारे, रंग से महरूम हैं
आपकी रानाई को रंगीन कह देने के बाद
ख़ूब उगला ज़ह्र यारों ने तअल्लुक़ तोड़ कर
साँप का बिल है मेरी अस्तीन कह देने के बाद
~ बलराम धाकड़
मौलिक/अप्रकाशित।
Comment
आदरणीय अजय तिवारी जी, आपको ग़ज़ल पसन्द आई, मेरा लिखना सार्थक हुआ।
बहुत बहुत शुक्रिया!
धन्यवाद!
आदरणीय महेंद्र कुमार जी, ग़ज़ल में शिरक़त और हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया!
सादर!
आदरणीय बलराम जी, एक और ऊर्जावान ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई.
बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल है आदरणीय बलराम धाकड़ जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
आदरणीय ब्रजेश जी, हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया!
सादर!
आदरणीय सुरेंद्र जी, ग़ज़ल में शिरक़त और हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया!
सादर!
आदरणीय समर सर, सादर अभिवादन एवं धन्यवाद। आप जिस तवज्जो और जितना वक़्त देकर ग़ज़लों की तक़तीअ और मीमांसा करते हैं वह हम जैसे शागिर्दों के लिए किसी प्रकाश स्तम्भ से कम नहीं है। आपके कहे मुताबिक सुधार कर लिया जाएगा। पुनः बहुत आभार।
सादर।
बहुत ही खूब ग़ज़ल कही है आदरणीय..3,4,5 शे'र विशेष रूप से पसंद आये।आदरणीय समर जी की टिप्पड़ी शिक्षा पूर्ण है।
// मामले को वाक़ई संगीन कह देने के बाद//
इस मिसरे में 'मामले' की जगह और कोई शब्द रखें।
आद0 बलराम धाकड़ जी सादर अभिवादन। आपकी ग़ज़ल पर आद0 समर साहब की टिप्पणी से हम सबको भी ग़ज़ल और कथ्य की बारीकियों को समझने में मदद मिली। आपको ग़ज़ल पर मेरी दाद और बधाई निवेदित है।
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