जर्जर तेरा महल हुआ है
बासी आबोदाना
रूह का पाखी बोल रहा चल
बदलें आज ठिकाना
कोने कोने जाल मकड़िया
ढहने को तैयार दुकड़िया
ईंटें होती नंगी सारी
गारे की भी तंगी भारी
गाटर हुआ पुराना
पसरी आँगन बीच उदासी
जमी हुई हैं सभी निकासी
धूप हवा आती डर डर कर
धीमे धीमे ठहर ठहर कर
संकरा हुआ मुहाना
बंद सुराही जल पीने की
टूटी सब पैड़ी जीने की
खम्बे बम्बे झूल रहे हैं
बोझ उठाना भूल रहे हैं
अब घर नया बसाना
धुँधले सारे चाँद सितारे
टूटी लय टूटे सुर सारे
पूर्ण हुआ जीवन सँगीत रे
दिल की खिड़की खोल
मीत रे
मुझे अभी है जाना
रूह का पाखी बोल रहा चल
बदलें आज ठिकाना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० बृज जी आपका बहुत बहुत आभार
आद० रामबली गुप्ता जी नवगीत आपको पसंद आया दिल से बहुत बहुत आभारी हूँ .आपने सही सोचा रूह शब्द में गायन के हिसाब से भी ह की मात्रा गिरकर ही गाया जाता है इसी के अंतर्गत ये छूट ली है मकड़िया दुकडिया थर्ड दर्जे की तुकांतता हो सकती है किन्तु यहाँ गीत की डिमांड के अनुसार रखनी पड़ी
आद० अजय तिवारी जी आपका दिल से बहुत बहुत आभार
आद० मोहम्मद आरिफ जी आपको नवगीत पसंद आया आपने इसे गाकर भी देखा मेरा गीत सच में धन्य हो गया .आपका दिल से बहुत बहुत आभार
आद० समर भाई जी आपको ये नवगीत पसंद आया दिल से बहुत बहुत आभार आपका .
वाह आदरणीया बहुत ही सुन्दर गीत हुआ..बधाई
सुंदर नवगीत के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय बहना राजेश कुमारी जी।
मुखड़े के द्वितीय पड़ में 'रूह का पाखी' में लय बनाने के लिए मात्रापतन लिया गया है। शायद नवगीत में मात्रापतन की छूट होती है। मकड़िया और दुकड़िया में तुकांतता ठीक तो है न?
आदरणीया राजेश जी, एक और खूबसूरत गीत-प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई.
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब,
नए-नए बिम्बों और प्रतीकों से सुसज्जित लाजवाब नवगीत की सौगात के लिए लख-लख बधाइयाँ । इस गीत को मैं कई बार गुनगुना चुका हूँ ।
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत उम्दा नवगीत हुआ है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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