2122 2122 212
काँच पत्थर से भले टकरा गया।
ज़िंदगी का फ़लसफ़ा समझा गया।
फ़िर सियासत में हुई हलचल कहीं,
मीडिया के हाथ मुद्दा आ गया।
सारी दुनिया एक कुनबा है अगर,
आयतन रिश्तों का क्यों घटता गया?
इक बतोलेबाज की डींगें सुनीं,
आदमी घुटनों के ऊपर आ गया।
फिर किसी औरत का दामन जल गया,
फ़िर किसी का कोई बचपन खा गया।
ज़लज़ले के बाद की तस्वीर में,
देखकर फ़ानी जहां घबरा गया।
वासिते उसके मेरे दिल में दबीं,
लाख गिरहें थीं मगर सुलझा गया।
शुक्रिया! ऐ ज़िंदगानी के चलन,
शायरी के मायने समझा गया।
क्यों किराए की इमारत पर गुमां?
मौत आई, रूह का क़ब्ज़ा गया।
नौकरी पूरी हुई, कुर्सी गई,
शुहरतें रुख़सत हुईं, रुतबा गया।
~मौलिक/अप्रकाशित।
~ बलराम धाकड़ ।
Comment
आदरणीय रवि शुक्ल जी, ग़ज़ल आपको पसंद आई, मेरा लिखना सार्थक हुआ। जी हाँ, सर, मुद्दा शब्द के प्रचलन अनुसार ही इस्तेमाल में कोई अड़चन न हो तो इसे ऐसा ही रहने दें।
सादर।
आदरणीय अजय तिवारी जी, ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और सुझावों हेतु बहुत बहुत शुक्रिया एवं आभार।
सादर।
आदरणीय बलराम धाकड़ जी, सुन्दर गजल की प्रस्तुति पे मुबारकबाद पेश करता हूँ. मुद्दआ 212 के वज्न में होगाशायद देखियेगा आपने बोलचाल का मुद्दा 22 के वजन में लिया है
आदरणीय बलराम जी,
वासिते > वास्ते
फिर किसी औरत का दामन जल गया > जल गया दामन किसी औरत का फिर
शायरी के मायने समझा गया > शायरी है क्या मुझे/हमें समझा गया
अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
आदरणीय लक्ष्मण जी, सादर विनम्र अभिवादन।
आपके प्रोत्साहन का बहुत बहुत आभार।
सादर।
आदरणीय तेजवीर सिंह जी, आपकी सराहना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
सादर।
आदरणीय समर सर, ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
पाँचवे शेर को दुरुस्त करने की कोशिश करता हूँ।
और मायने का भी भी कोई बेहतर विकल्प खोजता हूँ।
आपकी प्रतिक्रिया का पुनः आभार!
आदरणीय बलराम धाकड़ साहब सच्चाई को बयां करती बेहतरीन गजल लिखने के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय बसंत कुमार जी, ग़ज़ल आपको अच्छी लगी, मेरा लिखना सार्थक हुआ।
सादर
बहुत बहुत शुक्रिया, जनाब राज़ साहिब।
आभार!
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