अंतर्द्वन्द्व
कितने बर्फ़ीले दर्द दिल में छिपाए
किन-किन बहानों से मन को बहलाए
भीतर की गहरी गुफ़ा से आकर
तुम्हारे सम्मुख आते ही हर बार
हँस देता हूँ , हँसता चला जाता हूँ
स्वयं को छल-छल ऐसे
तुमको भी... छलता चला जाता हूँ
ऐसे में मेरी हर हँसी में तुम भी
हँस देती हो ... नादान-सी
मेरे उस मुखौटे से अनभिज्ञ
न जानती हो, न जानना चाह्ती हो
कि अपने सुनसान अकेलों में
मैं वह नहीं हूँ जो हूँ प्राय:
सामने तुम्हारे
बिंधती गहरी कोई आंतरिक वेदना मेरी
घसीट ले जाती है मुझको
और छोड़ आती है अविरल
उलझे विचारों के पहाड़ की उस चोटी पर
जहाँ वेदना की मटियाली धुंध में खड़े
किसी भी दिशा में अंतर्द्वन्द्व के धुंए के सिवा
कहीं कुछ और नहीं दीखता
वहाँ उस चोटी पर असहाय-सा खड़ा
दर्द करता है दर्द से दर्द की बातें
अनेक मानसिक अदृश्य सूत्रों में तब मैं
ढूँढ्ता हूँ उस “आनादि” दर्द का आदि और अंत
ठीक उसी समय उस गहन आतंक में आतंकित
कांपती रहती है मुझसे ही ठगी मेरी आस्था
कांपता रहता है भीतर दुबक कर बैठा
मेरा भोला विश्वास
पर इस अविरल अंतर्द्वन्द्व की बीच भी
तुम्हारे निश्छल स्नेह के रमणीय मनोहर
कोई कोमल कमल-फूल रहते हैं विकसित
मेरी सूक्ष्मतम मानवीय सम्भावनायों को
वह रखते हैं सुगंधित
मेरी आस्था अब और कांपती नहीं है
अलौकिक विश्वास के कंधे पर
स्नेह ले आता है वापस
मेरी आत्मा को तुम्हारी आत्मा के पास
और तुम्हारी उपस्थिति की महक में
हँसता हूँ मैं, हँस देती हो तुम
बच्चों-से हँसते चले जाते हैं हम दोनो
----------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मुहतरम विजय साहिब, अच्छी रचना हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l
आदरणीय विजय निकोरे जी खूब सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई , लाजवाब
बेहतरीन सृजन फीचर्ड किये जाने पर तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब विजय निकोरे साहिब।
हार्दिक बधाई आदरणीय विजय निकोरे जी।बेहतरीन प्रस्तुति।
अलौकिक विश्वास के कंधे पर
स्नेह ले आता है वापस
मेरी आत्मा को तुम्हारी आत्मा के पास
और तुम्हारी उपस्थिति की महक में
हँसता हूँ मैं, हँस देती हो तुम
बच्चों-से हँसते चले जाते हैं हम दोनो
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