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वह्म को खोल के हमने तो वहम कर डाला
जीभ थी ऐंठती, इस दर्द को कम कर डाला
बाज़ लफ़्ज़ों के तलफ़्फ़ुज़ को हज़म कर डाला
नर्म जो थी न सदा उसको नरम कर डाला
क़ह्र की छुट्टी करी सीधे कहर को लाकर
टेढ़े अलफ़ाज़ पे हमने ये सितम कर डाला
क्योंकि लंबी थी बहुत रस्मो क़वायद पे बहस
ख़त्म होती नहीं ख़ुद, हमने ख़तम कर डाला
बंदा पंजाबी था कहने लगा सुन ऐ पुत्तर
नज़्म को खींच कर हमने तो नज़म कर डाला
अब तो हम राज़ हैं मर्दुम नहीं, बस इक दुम हैं
मर के मर्दुम से हर्फ़े 'मर' को क़लम कर डाला
~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
मर्दुम- मनुष्य, आदमी, सभ्य
Comment
राज साहब बहुत अच्छा लिखते हैं आप आपकी ग़ज़लों को पढ़ के अच्छा लगता है मै अभी बस सीख ही रहा हूँ, इस ग़ज़ल के मतले मे आप जो बात कहना चाह रहें हैं वो मैं समझ नही पा रहा अगर आप थोड़ी रोशनी डाल दें तो मेहरबानी होगी
आदरणीय नादिर खान साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहे दिल से शुक्रिया. सादर
आदरणीय अनिस शेख़ साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहे दिल से शुक्रिया. सादर
क्योंकि लंबी थी बहुत रस्मो क़वायद पे बहस
ख़त्म होती नहीं ख़ुद, हमने ख़तम कर डाला... बहुत समझदारी वाली बात कही साहब
उम्दा गज़ल कही आदरणीय राज़ साहब मुबारकबाद स्वीकारें ।
राज साहिब ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद पेश करता हूँ।
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