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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७३ एक मज़ाहिया ग़ज़ल

2122 1122 1122 22/ 122

वह्म को खोल के हमने तो वहम कर डाला
जीभ थी ऐंठती, इस दर्द को कम कर डाला

बाज़ लफ़्ज़ों के तलफ़्फ़ुज़ को हज़म कर डाला
नर्म जो थी न सदा उसको नरम कर डाला

क़ह्र की छुट्टी करी सीधे कहर को लाकर
टेढ़े अलफ़ाज़ पे हमने ये सितम कर डाला

क्योंकि लंबी थी बहुत रस्मो क़वायद पे बहस
ख़त्म होती नहीं ख़ुद, हमने ख़तम कर डाला

बंदा पंजाबी था कहने लगा सुन ऐ पुत्तर
नज़्म को खींच कर हमने तो नज़म कर डाला

अब तो हम राज़ हैं मर्दुम नहीं, बस इक दुम हैं
मर के मर्दुम से हर्फ़े 'मर' को क़लम कर डाला

~राज़ नवादवी 

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

मर्दुम- मनुष्य, आदमी, सभ्य

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Comment by Md. Anis arman on November 25, 2018 at 1:21pm

राज साहब बहुत अच्छा लिखते हैं आप आपकी ग़ज़लों को पढ़ के अच्छा लगता है मै अभी बस सीख ही रहा हूँ, इस ग़ज़ल के मतले मे आप जो बात कहना चाह रहें हैं वो मैं समझ नही पा रहा अगर आप थोड़ी रोशनी डाल दें तो मेहरबानी होगी 

Comment by राज़ नवादवी on November 25, 2018 at 12:59pm

आदरणीय नादिर खान साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहे दिल से शुक्रिया. सादर 

Comment by राज़ नवादवी on November 25, 2018 at 12:59pm

आदरणीय अनिस शेख़ साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहे दिल से शुक्रिया. सादर 

Comment by नादिर ख़ान on November 25, 2018 at 12:27pm

क्योंकि लंबी थी बहुत रस्मो क़वायद पे बहस
ख़त्म होती नहीं ख़ुद, हमने ख़तम कर डाला... बहुत समझदारी वाली बात कही साहब 

उम्दा गज़ल कही आदरणीय राज़ साहब मुबारकबाद स्वीकारें । 

Comment by Md. Anis arman on November 25, 2018 at 12:17pm

राज साहिब ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद पेश करता हूँ। 

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