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न जाने क्या हुई हमसे ख़ता है
हमारा यार जो हमसे खफ़ा है।
यूँ ही बदनाम हाकिम को हैं करते
यहाँ प्यादा भी जब जालिम बड़ा है।
जरा सींचो भरोसा तुम जड़ों में
शज़र रिश्तों का इन पर ही खड़ा है।
उसी ने छू लिया है आसमाँ को
परिंदा जो गिरा, गिर कर उठा है।
नहीं हमदर्द होता आदमी जो
सहारा गलतियों में दे रहा है।
अमा की रात में महताब आया
तुम आये तो हमे ऐसा लगा है।
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर सर सादर नमन! उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार
आदरणीय राज नवादवी जी नमन सादर, ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया
आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी सादर नमन सह हार्दिक आभार
आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी सादर नमन सह हार्दिक आभार। सादर
आदरणीय श्याम नारायण ।वर्मा जी, सादर नमन सह हार्दिक आभार, अनुमोदन एवं उत्साहवर्धन के लिए
जनाब सतविन्द्र कुमार 'राणा' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय सतविंद्र कुमार,जी आदाब, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे हार्दिक बधाई. सादर
आदरणीय सतविंद्र कुमार जी आदाब,
अच्छी ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद कुबूल करें ।
बेहतरीन सांकेतिक विचारोत्तेजक रचना हेतु सादर हार्दिक बधाई आदरणीय सतविंदर कुमार राणा साहिब।
आदरणीय , सुन्दर ग़ज़ल हेतु बधाई आप को | सादर
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