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हर ख़ुशी का इक ज़रीआ चाहिए
ठीक हो वह ध्यान पूरा चाहिए।
दर्द को भी झेलता है खेल में
दिल भी होना एक बच्चा चाहिए।
जान लेना राह को हाँ ठीक है
पर इरादा भी तो पक्का चाहिये।
टूट कर शीशा जुड़ा है क्या कभी
टूट जाए तो न रोना चाहिए।
झूठ की बुनियाद पर है जो टिका
वो महल हमको तो कचरा चाहिए।
विष वमन कर जो हवा दूषित करे
उस जुबाँ पर ठोस ताला चाहिए।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सतविंद्र जी अच्छी ग़ज़ल कही है..लेकिन आदरणीय समर कबीर जी की बात से इत्तफ़ाक़ रखता हूँ..
आदरणीय सतविंदर सिंह जी, आदाब. ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें. बाक़ी आदरणीय समर कबीर साहब ने अपनी बहुमूल्य प्रक्रिया दे दी है. सादर
'मफ़हूम'--यानी,जो बात आप कहना चाहते हैं वो स्पष्ट नहीं हो रही है ।
आद0 सतविंदर भाई जी ग़ज़ल के बेहतरीन प्रयास के लिए बधाई। मफ़हूम मतलब अर्थ या meaning होता है मेरे समझ से।
आदरणीय समर कबीर जी सादर वन्दन, मार्गदर्शन के लिए सादर आभार।
मफ़हूम का मतलब मई न समझ पाया। सादर
आदरणीय छोटे लाल सिंह जी नमन सादर, हार्दिक आभार
आदरणीय फूल सिंह जी सादर नमन, हौंसलाफ़ज़ाई के लिए शुक्रिया
आदरणीय राणा जी सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई
जनाब सतविन्द्र कुमार 'राणा' जी आदाब,ग़ज़ल की कोशिश अच्छी है,लेकिन अभी समय चाहती है,बहरहाल बधाई स्वीकार करें ।
' हर ख़ुशी का इक ज़रिआ चाहिए
ठीक हो यह ध्यान पूरा चाहिए'
मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,दूसरी बात,ऊला मिसरे में 'ज़रिआ' ग़लत है,सहीह शब्द है "ज़रीआ" ।
' दर्द को भी झेल ले जो खेल में
दिल को होना एक बच्चा चाहिए'
इस शैर के ऊला मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है,और दूसरे मिसरे का शिल्प कमज़ोर है,इस शैर को यूँ कर सकते हैं :-
'झेल पाये दर्द को जो खेल में
दिल हमारा ऐसा होना चाहिये'
' काँच टूटा फिर जुड़ा है क्या कभी
टूटने को फिर न रोना चाहिए'
इस शैर को यूँ कर लें:-
'टूट कर शीशा जुड़ा है क्या कभी
टूट जाये तो न रोना चाहिये'
बाक़ी अशआर में मफ़हूम साफ़ नहीं है ।
सुंदर रचना बधाई स्वीकारे
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