1
माना होता है समय, भाई रे बलवान
लेकिन उसको साध कर, बनते कई महान
बनते कई महान, विचारें इसकी महता
यह नदिया की धार, न जीवन उनका बहता
सतविंदर कह भाग्य, समय को ही क्यों जाना
नहीं सही भगवान, तुल्य यदि इसको माना।
2
होते तीन सही नकद, तेरह नहीं उधार
लेकिन साच्चा हो हृदय, पक्का हो व्यवहार
पक्का हो व्यवहार, तभी है दुनिया दारी
कभी पड़े जब भीड़, चले है तभी उधारी
सतविंदर छल पाल, व्यक्ति रिश्तों को खोते
उनका चलता कार्य, खरे जो मन के होते!
3
हँस कर भाई काट लो, दिन जीवन के चार
छोटी-छोटी बात पर, सही न होती रार
सही न होती रार, बुद्धि भी तनती जाती
दूजा हो बेहाल, शान्ति खुद को कब आती
सतविंदर कह मेल, सही होता इस पथ पर
समय सख्त या नर्म, कटे फिर देखो हँस कर।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सतविन्द्र जी, आपकी रचनाओं का स्वर नीतिपरक होने से पाठक को सचेत करता हुआ है.
इनके परिप्रेक्ष्य में एक बात अवश्य कहना चाहूँगा. कि, एक सीमा और वर्ग के आगे ऐसे प्रयास आज बहुत स्वीकार्य नहीं हो पाते. कुण्डलिया छंद के लिए ऐसी शैली एक युग में बहुत प्रचलित थी. किन्तु, युग बदल गया तो लेखन और इसके कथ्य की शैली भी बदल गयी है. आजके छंद आजके अनुसार होने चाहिए ऐसा मेरा मानना है. कोई व्यक्ति सहज रूप से उपदेश सुनना नहीं चाहता. कि, सभी अपनी सुनाने पर हैं. यह अवश्य है कि आपकी प्रस्तुति की भाषा खड़ी हिन्दी है.
निवेदन :
बनते कई महान, विचारें इसकी महता .. यह महता क्या है ?
पक्का हो व्यवहार, तभी है दुनिया दारी .. दुनियादारी एक शब्द है, भाई.
एक बात और,
आपने शीर्षक कुण्डलियाँ रखा है. इसका क्या अर्थ है ?
एक अच्छी और सहज प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई.
शुभ-शुभ
आदरणीय राणा बेहतरीन कुण्डलिया के लिए बहुत बहुत बधाई
भई वाह कवि महोदय सुन्दर...
जनाब सतविन्द्र कुमार जी आदाब,अच्छे कुण्डलिया छन्द हुए,बधाई स्वीकार करें ।
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