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हैं जो अफसानें पुराने, सब भुलाना चाहता हूँ
इस धरा को स्वर्ग-जैसा ही बनाना चाहता हूँ
देश में अपने सदा सद्भाव फैलाएँ सभी जन
अब सभी दीवार नफरत की गिराना चाहता हूँ
दिल सभी का हो सदा निर्मल नदी-जैसा धरा पर
अब परस्पर प्यार करना ही सिखाना चाहता हूँ
धन कमाऊँगा मगर धोखा न सीखूँगा किसी से
हर कदम अपना पसीना ही बहाना चाहता हूँ
है ये तेरा, है ये मेरा की लड़ाई खत्म हो अब
और खुशियाँ संग सबके ही मनाना चाहता हूँ
है लहू सैनिक बहाता देश के खातिर हमेशा
शीश श्रद्धा से सदा उसको झुकाना चाहता हूँ
( मौलिक एवं अप्रकाशित )
- दयाराम मेठानी
Comment
आदरणीय समर कबीर जी, बहुत बहुत आभार। गज़ल के प्रयास पर आपकी समीक्षा से उत्साहवर्धन हुआ है। आपने जो सुझाव दिये है उनके लिए तहे दिल से आभार।
जनाब दयाराम मेठानी जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
' इस धरा को स्वर्ग-जैसा ही बनाना चाहता हूँ'
इस मिसरे में 'ही' की जगह "मैं" करना उचित होगा ।
' अब सभी दीवार नफरत की गिराना चाहता हूँ'
इस मिसरे को यूँ कर लें,गेयता बढ़ जाएगी:-
'इसलिये दीवार नफ़रत की गिराना चाहता हूँ'
' अब परस्पर प्यार करना ही सिखाना चाहता हूँ'
इस मिसरे में 'अब' की जगह "यूँ" कर लें ।
'
और खुशियाँ संग सबके ही मनाना चाहता हूँ'
इस मिसरे को यूँ कर लें,गेयता बढ़ जाएगी:-
'मैं यहाँ ख़ुशियाँ सभी के सँग मनाना चाहता हूँ'
आदरणीय शैलेश चंद्राकर जी, उत्साहवर्धन के लिए आभार एवं धन्यवाद।
आदरणीय राहुल डांगी जी,
उत्साहवर्धन एवं सुझाव हेतु बहुत बहुत आभार।
आदरणीय बहुत सुन्दर भाव पिरोये है हर पंक्ति में, बधाई स्वीकार करें ।
बार बार 'अब' की आवर्ती कविता का सौन्दर्य कम रही है।
आदरणीय जहाँ तक मेरा विचार है ये ग़ज़ल न हो के कविता कही जा सकती है
क्यूं यदि अगल अगल शे'र पढे तो रब्त की कमी खलती है
बहुत खूब, आदरणीय दयाराम जी, आज के लिए बहुत उपयोगी ग़ज़ल है। हृदय से बधाई।
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