निस्शब्द स्वरों के कानफोड़ू शोर
चिलचिलाते मौन की बेधती टीस
लगातार भींचती जाती दंत-पंक्तियों में घिर्री कसावट
माज़ी का गाहेबगाहे हल्लाबोल करते रहना..... ....
जब एकदम से सामान्य हो कर रह जाय..
तो फिर...
कागज़ के कँवारेपन को दाग़ न लगे भी तो कैसे?
आखिर जरिया भर है न बेचारा ..
/एक माध्यम भर../
कुछ अव्यक्त के निसार हो जाने भर का
महज़ एक जरिया ... ...और....
किसी जरिये की औकात आखिर होती ही क्या है ?
उसके हिस्से
उसे इस्तमाल कर आगे निकलजानेवालों के नक्शेकदम हुआ करते हैं... बस.
कागज़ का कोरापन
उसके बोसीदे वज़ूद के आगे हार ही जाये तो क्या.. ...
बेचारे का शफ्फ़ाक वज़ूद चुड़मुड़ा-चुड़मुड़ा जाये भी तो क्य़ा.. ...
सिलवटें कहीं हों ...
काग़ज़ पर..
या फिर... .. ओह.!..कहीं भी ..
निस्शब्द रातों की मौन चीख का विस्तार भर हुआ करती हैं..
--सौरभ
Comment
आपकी स्वीकृति ने उत्साहित किया है.
हार्दिक धन्यवाद.
चिलचिलाते मौन की बेधती टीस
लगातार भींचती जाती दंत-पंक्तियों में घिर्री कसावट
मौन की चीख है जो झकझोर देती है ..सुन्दर अभिव्यक्ति
वन्दनाजी, रचना की भावना को मान देने के लिये. बहुत-बहुत आभार..
आपने रचना की अंतर्धारा के बहाव को महसूस किया... गोते लगाये... मेरा मान बढ़ा है.
सहयोग बना रहे. इस अपेक्षा के साथ.... गणेशभाई, आपका हार्दिक धन्यवाद.
//कागज़ के कँवारेपन को दाग़ न लगे भी तो कैसे?//
आहा, बहुत सुंदर , भाव को बहुत ही करीने से तराशा गया है | साहित्यकारों के हाथ में कागज़ आ जाये तो फिर उसका बच पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है :-)
/
किसी जरिये की औकात आखिर होती ही क्या है ?
उसके हिस्से
उसे इस्तमाल कर आगे निकलजानेवालों के नक्शेकदम हुआ करते हैं... बस./
बहुत ही खुबसूरत अभिव्यक्ति | बहुत बहुत आभार सौरभ भईया |
वीरेन्द्रजी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. परस्पर सहयोग बना रहे.
.
बहुत-बहुत धन्यवाद विवेकभाई.
रचना की अंतर्निहित धारा को महसूसने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद.
रचनाओं के कई कोण और आयाम तो स्व-प्रकाशित एवं मुखर होते हैं, वहीं कुछ कोणों और आयामों की प्रतिध्वनियाँ सूक्ष्म तरंगों में होती हैं, जिनका होना अवश्य ही अव्यय भर नहीं हुआ करता. वाचन के क्रम में पाठक द्वारा उस अनहद की अनुभूति होना रचना की आत्मा को समझना होता है. जो किसी रचनाकर्मी के लिये पारितोषिक सदृश है.
आपका पुनः धन्यवाद.
पढने के बाद यही सोच रहा हूँ कि लिखते वक़्त दिमाग में क्या-क्या आया होगा..
/सिलवटें कहीं हों ...
काग़ज़ पर..
या फिर.../- इस पंक्ति ने तो मानों पूरी कविता ही कह दी.. आप और आपकी गहरी सोच को सलाम.
अरुणभाईजी,
आपकी प्रतिक्रिया ने मुझे बहुत अधिक उत्साहित किया है. हार्दिक धन्यवाद.
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