स्मृतियों के अनगढ़ कमरे से
अचानक बाहर फुदक आयी हैं कुछ नम रोशनियाँ... /आज फिर.. ..
एक बार फिर
मासूम सी कोशिश की है इनने..
कि, मनाँगन में
कशिशभरी आवारा धूप बन लहर-लहर नाचेंगी..
तुम मेरे साथ हो न हो.... ..
इन रोशनियों के साथ जरूर होना.. ..
...............कोशिश तो करना.. ..
मुझे पता है .. गया समय उल्टे पाँव नहीं चलता..
किन्तु इन भोली-निर्दोष रोशनियों को अब कौन समझाये..
और देखो.. ..
तुम भी मत समझाना.. ../अभी बचपना नहीं गया है न../
---चिर युवा होने का श्राप जो लगा है--
इनके अवगुंठित
दग्ध परिचय को
तुम अपने होने भर का अहसास भरा मरहम दे सको
तो, मैं खुशी-खुशी कुछ और खोल दूँ
अपने इस बेतरतीब कमरे के दरवाजे
रोशनियों को जाने क्यों... कबसे.. मेरा रूप मिल गया है..
और बार-बार.. मेरे रूप को ओढ़े
फुदक-फुदक आती हैं--
स्मृतियों के अनगढ़ कमरे से बाहर
उनकी अल्हड़ मासूमियत पर जाने क्यों
मेरी आँखों की समझदार कोर तक
नासमझ बनी नम-नम हुई जाती हैं... ..
काश.. काश..
काश.... ..
.
Comment
saurabh ji aapki rachna padi to sach me aisa laga jese mere apne man se kuchh yaaden pankh paila kar bahar mere kamre ki dehleez par phudakne lagi ho, bahut sundar rachna hai :}
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