मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
न हो जब दिल में कोई ग़म तो फिर लब पे फुगाँ क्यों हो
जो चलता बिन कहे ही काम तो मुँह में ज़बाँ क्यों हो //१
जहाँ से लाख तू रह ले निगाहे नाज़ परदे में
तसव्वुर में तुझे देखूँ तो चिलमन दरमियाँ क्यों हो //२
यही इक बात पूछेंगे तुझे सब मेरे मरने पे
कि तेरे देख भर लेने से कोई कुश्तगाँ क्यों हो //३
बसर जब है बियाबाँ में, बुरी फिर क्या ख़बर होगी
जिसे लूटा करे रहज़न वो मेरा कारवाँ क्यों हो //४
वो शाहिद है मेरे हाथों शिकस्ता जामो पैमां का
कि मेरे मैक़दा आने से ख़ुश पीरे मुगाँ क्यों हो //५
तुम्हीं तरगीब देते हो, तुम्हीं करते शिकायत भी
रगों में गर न दौड़े खूँ तो आँखें खूँ फ़िशाँ क्यों हो //६
समा ख़ाना बदोशों पर गिराये क्यों नहीं बिजली
ज़मीं जब है नहीं उनकी तो फिर ये आस्माँ क्यों हो //७
किया अग़राज़ ने महदूद तुमको तो गिला कैसा
करे साहिल की जो सुहबत वो दरिया बेकराँ क्यों हो //८
करो उम्मीद क्यों मुझसे सफ़र का हाल मैं पूछूँ
हो जिसकी और ही मंज़िल वो मेरा हमरहाँ क्यों हो //९
कोई शिकवा नहीं मुझको तुम्हारी बदख़िसाली का
न हो जब परवरिश ऊँची तो लहज़ा शाएगाँ क्यों हो //१०
तू पानी दे रहा है क्यों दिले अफ़्गार को अपने
जिसे नज़रों से तू मारे वो आशिक़ नीम जाँ क्यों हो //११
बना हुलिया फ़क़ीरों का सफ़र तय कर रहे हैं 'राज़'
ख़ुदा की हो जिसे रग़बत वो मुश्ताक़े जहाँ क्यों हो //१२
~ राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
फुगाँ- आर्तनाद, पुकार, दुहाई: उज़्व- अंग; नक़ूशे संदली बाज़ू- संदली बाहों के चित्र; कुश्तगाँ- मृत, मार दिया गया; शाहिद- गवाह; पीरे मुगाँ- मदिरालय का प्रबंधक; तरगीब- लालच, उत्तेजना, प्रेरणा; खूँ फ़िशाँ- न खून बरसाने वाला; समा- आकाश; अग़राज़- ग़रज़ का बहुवचन; महदूद- सीमित; बेकराँ- असीम; हमरहाँ- हम सफ़र; बदख़िसाली- बुरी प्रकृति/ बुरा स्वभाव; शाएगाँ- उत्तम, बढ़िया; नीम जान- अधमरा; रग़बत- इच्छा, अभिलाषा, रूचि, चाह; मुश्ताक़े जहाँ- दुनिया की चाह रखने वाला;
Comment
शुक्रिया जनाब समर कबीर साहब, सब आपकी इस्लाह और लिखने वालों के लिए आपकी मिहनत का नतीजा है. आपका ह्रदय से आभार. सादर.
अच्छी तरमीम की आपने ।
आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब.
नक़ूशे संदली बाज़ू से करता हूँ गुमाँ तेरा
शज़र-ए-जाफ़राँ न हो तो शाखे जाफ़राँ क्यों हो //२
इस शेर को बदल कर यूँ कर दिया है-
जहाँ से लाख तू रह ले निगाहे नाज़ परदे में
तसव्वुर में तुझे देखूँ तो चिलमन दरमियाँ क्यों हो
इस शेर को
बसर जब है बियाबाँ में, बुरी फिर क्या ख़बर होगी
करे रहज़न जिसे ग़ारत वो मेरा कारवाँ क्यों हो //४ यूँ कर दिया है-
बसर जब है बियाबाँ में, बुरी फिर क्या ख़बर होगी
जिसे लूटा करे रहज़न वो मेरा कारवाँ क्यों हो //४
मक़ते को
बना हुलिया फ़क़ीरों का सरापा जी रहे हैं 'राज़'
ख़ुदा की हो जिसे रग़बत वो मुश्ताक़े जहाँ क्यों हो //१० यूँ कर दिया है-
बना हुलिया फ़क़ीरों का सफ़र तय कर रहे हैं 'राज़'
ख़ुदा की हो जिसे रग़बत वो मुश्ताक़े जहाँ क्यों हो //१०
दो नए अशआर ऐड किये हैं-
कोई शिकवा नहीं मुझको तुम्हारी बदख़िसाली का
न हो जब परवरिश ऊँची तो लहज़ा शाएगाँ क्यों हो
तू पानी दे रहा है क्यों दिले अफ़्गार को अपने
जिसे नज़रों से तू मारे वो आशिक़ नीम जाँ क्यों हो
आपकी अनुमति के बाद पोस्ट में बदलाव कर दूंगा. सादर
आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब. आपकी इस्लाह का तहे दिल से शुक्रिया. सुझाए गए बदलाव के बाद रेपोस्ट करता हूँ. सादर.
// ज़ा'फ़राँ का मतलब मैंने केसर या कुमकुम से किया है. अगर इस शेर में बात नहीं बन रही है तो कृपया मार्गदर्शन करें//
' शज़र-ए-जाफ़राँ न हो तो शाखे जाफ़राँ क्यों हो'
इस मिसरे के बारे में ये बताना चाहता हूँ कि "ज़ाफ़रान" का न तो शजर होता है न शाख़ें ।
आदरणीय मुहम्मद अनिस शेख़ साहब, आपकी ज़र्रा नवाज़ी और इज़्ज़त अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया. लिखना लिखाना तो सब ऊपर वाले का करम है. वही तौफ़ीक़ देता है, वही तर्गीब भी. मिर्ज़ा ग़ालिब का एक ख़ूबसूरत शेर है जिसे पेश करना चाहूंगा-
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
'ग़ालिब' सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
सरीर-ए-ख़ामा- कलम की नोंक की आवाज़; नवा-ए-सरोश- दिव्य आवाज़
सादर
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी साहब, आपके ख्यालात जानकार अच्छा लगा. आपने बज़ा फ़रमाया है कि रचना की सम्प्रेषण शक्ति उसकी आत्मा है. और ये भी कि सरल शब्दों में भी अभिव्यक्ति की सभी संभावनाएं हैं. मेरा ख़याल तो ये है कि शब्दों की सरलता और क्लिष्टता शब्दों के चलन पर भी निर्भर है, शब्द सिक्कों की तरह हैं, जो चलते हैं उनकी क़ीमत है, बाक़ी संग्रह के तौर पे अच्छे हैं. मैं ग़ज़ल में हिंदी पदावलियों का इस्तेमाल कम से कम करना चाहता हूँ; मसलन अगर क़ाफिया इन्तेज़ार लिया है तो प्रतिकार या उपकार जैसे शब्दों का क़ाफिया नहीं लूँगा. मेरी एक कोशिश ये भी है कि अपनी ग़ज़लों के माध्यम से जो क्लासिकल उर्दू की ग़ज़लें रही हैं, उनके उस्लूब को निभाया जाए, सहल लफ़्ज़ों की जादूगरी का मैं एहतेराम तो करता हूँ, मगर लेखनी में मुझे अलफ़ाज़ की इश्वागरी से भी कुछ ख़ास मुहब्बत है. सब अपनी अपनी सोच पे मुनहसिर है. मुझ जैसे लोग महफ़िलों के शायर तो शायद कभी न बन पाएं, वक़्त निकल चुका है. मगर ये कोशिश तो है कि तारीख़ की किताबों में अगर अपना अदना सा नाम भी शुमार हुआ तो बहुत बड़ी बात होगी. बाक़ी अल्लाह की मर्जी है. सादर
आदरणीय समर कबीर साहब, ज़ा'फ़राँ का मतलब मैंने केसर या कुमकुम से किया है. अगर इस शेर में बात नहीं बन रही है तो कृपया मार्गदर्शन करें. सादर,
मुहतरम समर कबीर साहब, आदाब. आपकी इस्लाह सर आँखों पे. उज़्वे ज़बाँ से मेरा मतलब जिह्वा रूपी अंग से था, जैसे ज़मीने दिल, दिल रुपी ज़मीन. आपने जो मिसरा बताया है, माशा अल्लाह बहुत ख़ूब है. मैंने भी कुछ ऐसा सोचा था, मगर फिर लगा कि वो ग़ालिब साहब के मिसरे से बहुत मिलता जुलता है, इसलिए कुछ नया लिखने की गरज़ से 'उज़्वे ज़बाँ' किया था. आप कहते हैं तो आपने जैसा सुझाया है, उसे वैसा ही कर देता हूँ. सादर
आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज साहब, आपकी ज़र्रा नवाज़ी का ममनून हूँ, आपने जो इज़्ज़त बख्शी है उसका तहे दिल से शुक्रिया. सादर.
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