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आती नहीं है नींद क्यों आँखों को रात भर
हमने तो उनसे की थी बस दो टूक बात भर //१
दिल में न और ज़िंदगी की ख्व़ाहिशात भर
हस्ती है सबकी नफ़सियाती पुलसिरात भर //२
पढ़ ले तू मेरी आँख में जो है लिखा हुआ
गरचे किताबे दिल नहीं है काग़ज़ात भर //३
हर आदमी में मौत की ज़िंदा है एक लौ
तारीकियों की बज़्म ये रौशन है रात भर //४
दुनिया के एहतिशाम का नश्शा उतर गया
कासा-ए-दिल में ज़िंदगी आबे हयात भर //५
ग़ालिब की तर्ज़ पर तुझे लिखनी है ग़र ग़ज़ल
ख़ूने जिगर से राज़ तू अपनी दवात भर //६
~ राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
नफ़सियाती- मनोविज्ञान से संबंधित; पुलसिरात- नरक का पुल जिसे पार कर स्वर्ग मिलता है; एहतिशाम- वैभव, शानो-शौक़त; क़ासा ए दिल- ह्रदय का भिक्षा पात्र; आबे हयात - अमृत;
Comment
आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज साहब, आदाब. ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया. सादर.
वाह राज साहब क्या ही शानदार ग़ज़ल कही है..आदरणीय समर साहब की इस्लाह कुछ सीखने को भी मिला..
जनाब समर कबीर साहब, आपकी इस्लाह से बहुत कुछ सीखने को मिला, सौती क़ाफिये के बारे में सूना था, मगर आज अर्थ स्पष्ट हुआ. आपका बहुत बहुत शुक्रिया. एक बात और जो आपकी वजाहत से मालूम हुई, वो कि मैं सौतिये काफ़िये का ऐलान कर इस शेर को ग़ज़ल में शामिल रख सकता हूँ. आपका ह्रदय से आभार. सादर.
जनाब राज़ साहिब ,'तोय' और 'त' का उच्चारण अरबी,फ़ारसी,उर्दू में एक ही होता है,जैसे 'ज़ोय','ज़े','ज़ाल', का,उच्चारण भी एक ही होता है,लेकिन जब इन अक्षरों को लिखा जाता है तब इनका फ़र्क़ मालूम होता है, जब हम 'त' के क़वाफ़ी के साथ 'तोय' का क़ाफ़िया इस्तेमाल करेंगे तो वो सौती क़ाफ़िया कहलायेगा, यानी उसकी आवाज़ 'त' की होगी लेकिन वो लिखने में 'तोय' का होगा,ऐसा उस वक़्त किया जाता है जब कोई मजबूरी लाहिक़ हो,यानी शैर बहुत अच्छा हो और क़ाफ़िया मजबूरी में ले लिया जाय,लेकिन ऐसी सूरत में शाइर का फ़र्ज़ होता है कि वो इसका ऐलान कर दे,कि उसने फ़लाँ शैर में सौती क़ाफ़िया इस्तेमाल किया है ।
उम्मीद है आप समझ गए होंगे ।
आदरणीय समर कबीर साहब, इस्लाह का तहेदिल से शुक्रिया. एक शंका थी जिसे दूर करना चाहता हूँ: क्या 'तोय' और 'ते' का उच्चारण अलग है? शायद अरबिक में हो, मुझे पता नहीं, क्या उर्दी/ हिंदी में इनका उच्चारण अलग है? जनाब ख़लील मामून की एक ग़ज़ल है जिसमें तोय और ते के क़ाफिये साथ लिए गए हैं, बल्कि इसमें हिंदी के थ को भी त ध्वनि माँ कर 'साथ' का काफ़िया लिया गया है, कृपया मार्गदर्शन करें, सादर:
स्रोत:
न नींद है न ख़्वाब है न याद है न रात है
ज़मीं न आसमान है ज़माँ न काएनात है
ये जिस्म-ओ-जाँ का क़ाफ़िला है रास्ता पे कौन से
न मंज़िलों की आस है न रहरवों का साथ है
उमीद ओ आरज़ू के रंग क्यूँ फीके लग रहे हैं अब
कमी है आब-ओ-गिल में कुछ लहू में कोई बात है
है उन के वास्ते तमाम फ़त्ह-ओ-कामरानियाँ
मिरे लिए हमेशा से जो है तो सिर्फ़ मात है
मैं लहज़ा लहज़ा कट के गिर रहा हूँ अंधी खाई में
ये ज़िंदगी का रास्ता नहीं है पुल-सिरात है
है वस्ल अपने-आप से फ़िराक़ अपने-आप से
नहीं है कोई भी यहाँ बस एक मेरी ज़ात है
'मामून' अज़ल से ता-अबद नहीं है कोई रौशनी
ख़ला में दूर दूर तक बस इक अज़ीम रात है
आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब, आदाब. ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया. सादर.
आ. भाई राजनवादवी जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
// इस शेर को हटा दूँ फिर? कृपया अपनी सलाह दें.//
हटा देना ही मुनासिब होगा ।
आ. भाई राजनवादवी जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब. ग़ज़ल में आपकी शिरकत और इस्लाह का तहेदिल से शुक्रिया.
'हस्ती है सबकी नफ़सियाती पुलसिरात भर'
इस मिसरे में 'पुलसिरात' क़ाफ़िया 'त' का नहीं "तोय" का है.
इस शेर को हटा दूँ फिर? कृपया अपनी सलाह दें. सादर
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