2212 1212 2212 12
रुक्का किसी का जेब में मेरी जो पा लिया
उसने तो सर पे अपने सारा घर उठा लिया //१
लगने लगा है आजकल वीराँ ये शह्र-ए-दिल
नज्ज़ारा मेरी आँख से किसने चुरा लिया //२
ममनून हूँ ऐ मयकशी, अय्यामे सोग में
दिल को शिकस्ता होने से तूने बचा लिया //३
सरमा ए तल्खे हिज्र में सहने के वास्ते
दिल में बहुत थी माइयत, रोकर सुखा लिया //४
खाता था मुझसे प्यार की क़समें वो रात दिन
मैंने भी उसकी बात रक्खी, आज़मा लिया //५
गिरकर ज़मीने ख़ुल्द से पैदा हुआ जो मैं
अपनी अना में ख़ुद को ही मैंने गिरा लिया //६
बेचैन था वो गुलबदन बाजू में लेटकर
बांहों में उसको हौले से मैंने सुला लिया //७
मुतलाशी कब था हुस्न के अफ़्सूँ का 'राज़' मैं
बुलबुल मिली जो बाग़ में तो दिल लगा लिया //८
~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
रुक्का- ख़त, चिट्ठी, पुर्जा; ममनून- आभारी; अय्यामे सोग- शोक भरे दिन; सरमा ए तल्खे हिज्र - वियोग की कड़कती ठण्ड की रुत; माइयत- नमी; ज़मीने ख़ुल्द- स्वर्ग की ज़मीन; मुतलाशी- तलाश करने वाला
Comment
आदरणीय समर कबीर साहब, आपकी इस्लाह और रहनुमाई का तहेदिल से शुक्रिया. आपके बेशक़ीमती राय से बात वाज़ेह हुई. सादर.
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत साहब, आदाब. शुक्रगुज़ार हूँ कि बहुत ही तफ़सील से और वक़्त देकर आपने अपनी बात कही. जैसा हमारे मंच के उस्ताज़ आदरणीय समर कबीर साहब ने फ़रमाया है, मेरी बह्र ख़ुद-साख्ता है, चुनांचे ली जा सकती है जबकि आपने जिस बह्र को बताया वो हस्बे अरूज़ है. इस मुफ़ीद गुफ्तो शनीद के लिए एक बार फिर से शुक्रिया. सादर.
जनाब राज़ साहिब,आपके दिए हुए अरकान ख़ुद साख़ता हैं,और आपकी ग़ज़ल की तक़ती'अ उन अरकान से हो रही है ।
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी ने जो अरकान बताए हैं वो अरूज़ के हिसाब से मान्य हैं ।
भाई राज़ नवादवी जी ,आदाब ,मैंने अपना नज़रिया पेश किया है | वैसे इस ग़ज़ल के सभी मिसरा-ए-सानी २२१ २१२१ १२२१ २१२ पर ही है -माथे पे उसने अपने सारा घर उठा लिया' ( इस पर तो कबीर साहेब अपना विचार दे चुके है मुहावरा सर पर उठा लिया है माथे पर नहीं माथे से लगाया जाता है -यह मिसरा कुछ इस प्रकार होना चाहिए -सर पर तमाम घर को फिर उसने उठा लिया )'(लगने लगा है आजकल वीराँ ये शह्र-ए-दिल'='लगने लगा है आज ये वीरान शह्र-ए-दिल' ) मैंने भी उसकी बात रक्खी, आज़मा लिया' (बात रखीं -रक्खी केवल एक मात्रा बढानी हो तो प्रयोग होता है )(बेचैन था वो गुलबदन बाजू में लेटकर' =बेचैन गुलबदन था वो बाजू में लेटकर' ) 2212 1212 2212 12 इस बह्र के बारे में कभी सुना नहीं न आप कुछ बता पा रहे हैं | मैं गलत भी हो सकता हूँ क्योंकि मैंने अगर कोई बह्र नहीं देखी इसका मतलब यह नहीं कि यह बहर हो ही नहीं | वैसे कुछ बहूर मिलती जुलती भी हो सकती हैं | आपकी कलमकारी पर कोई सवाल नहीं उठा रहा हूँ ,सिर्फ अपने विचार प्रकट कर रहा हूँ कृपया इस बात को दिल पर न लेंगे उम्मीद करता हूँ |
आदरणीय समर साहब, आपकी इस्लाह का तहेदिल से शुक्रिया, मतले का सानी मिसरा बदलकर रेपोस्ट करता हूँ. सादर.
जी जनाब अनीस साहब, आपने बिलकुल बज़ा फरमाया है, सीखने के लिए कोई भी उम्र बड़ी नहीं है. समर साहब के योगदान को कभी भी कम करके नहीं आंका जा सकता है, उनकी निस्स्वार्थ सेवा की कोई मिसाल नहीं. आपकी स्नेह का तहेदिल से शुक्रिया भाई. सादर
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत साहब, ग़ज़ल में आपकी शिरकत और आपके सुझावों का तहेदिल से शुक्रिया. हालांकि २२१ २१२१ १२२१ २१२ की बह्र पे ये मिसरे नहीं बैठ रहे:
'माथे पे उसने अपने सारा घर उठा लिया'
'लगने लगा है आजकल वीराँ ये शह्र-ए-दिल'
'दिल में बहुत थी माइयत, रोकर सुखा लिया'
'मैंने भी उसकी बात रक्खी, आज़मा लिया'
'गिरकर ज़मीने ख़ुल्द से पैदा हुआ जो मैं'
'अपनी अना में ख़ुद को ही मैंने गिरा लिया'
'बेचैन था वो गुलबदन बाजू में लेटकर'
'बांहों में उसको हौले से मैंने सुला लिया'
जबकि ये तमाम मिसरे/ अशआर एवं बाक़ी के मिसरे मेरी लिखी बह्र पे फिट बैठते हैं. बाक़ी आदरणीय समर साहब से निवेदन है कि मार्गदर्शन करें. सादर.
मेरी बात को मान देने के लिए शुक्रिया राज भाई , और रही बात गलतियों की तो , वही तो हमें सिखाती हैँ और समर सर तो हैं ही रास्ता दिखाने के लिए , जब तक मैं इस मंच से नहीं जुड़ा था मुझे खुद के लिखे में कोई कमी नहीं लगती थी पर अब कमी समझ में आने लगी है, और आप तो माशाअल्लाह बहुत अच्छा लिखते है |
आदरणीय अनीस शेख़ साहब, ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया. आपका इस बात के लिए भी शुक्रिया कि आपकी प्रेरणा से ही मैंने तरही मुशायरे में फटाफट लिख के ग़ज़ल पेश की हालाँकि उसमें शिताबी की वजह से दो एक ग़लतियाँ भी रह गई थीं. सादर.
भाई राज़ नवादवी जी अच्छी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं | बह्र मेरे ख्याल से 2212 1212 2212 12 न होकर २२१ २१२१ १२२१ २१२ है |
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