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रुक्का किसी का जेब में मेरी जो पा लिया
उसने तो सर पे अपने सारा घर उठा लिया //१
लगने लगा है आजकल वीराँ ये शह्र-ए-दिल
नज्ज़ारा मेरी आँख से किसने चुरा लिया //२
ममनून हूँ ऐ मयकशी, अय्यामे सोग में
दिल को शिकस्ता होने से तूने बचा लिया //३
सरमा ए तल्खे हिज्र में सहने के वास्ते
दिल में बहुत थी माइयत, रोकर सुखा लिया //४
खाता था मुझसे प्यार की क़समें वो रात दिन
मैंने भी उसकी बात रक्खी, आज़मा लिया //५
गिरकर ज़मीने ख़ुल्द से पैदा हुआ जो मैं
अपनी अना में ख़ुद को ही मैंने गिरा लिया //६
बेचैन था वो गुलबदन बाजू में लेटकर
बांहों में उसको हौले से मैंने सुला लिया //७
मुतलाशी कब था हुस्न के अफ़्सूँ का 'राज़' मैं
बुलबुल मिली जो बाग़ में तो दिल लगा लिया //८
~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
रुक्का- ख़त, चिट्ठी, पुर्जा; ममनून- आभारी; अय्यामे सोग- शोक भरे दिन; सरमा ए तल्खे हिज्र - वियोग की कड़कती ठण्ड की रुत; माइयत- नमी; ज़मीने ख़ुल्द- स्वर्ग की ज़मीन; मुतलाशी- तलाश करने वाला
Comment
राज साहब बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिये | वैसे इस बार के मुशायरे में अभी तक आपकी ग़ज़ल पढ़ने को नहीं मिली है l
आदरणीय फूल सिंह साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया. सादर
भाई "राज नवादवी" एक अच्छी और सूंदर रचना बधाई स्वीकारे
मुहावरा 'घर सर पर उठाना है' बाक़ी आप देख लें,नस्र का हवाला ग़ज़ल में नहीं चलता,किसी ग़ज़ल में 'घर माथे पर उठाना' हो तो बताइये ।
तनाफ़ुर बदलना मुमकिन हो तो ठीक अन्यथा रखा जा सकता है ।
मक़्ते के सानी मिसरे में तनाफ़ुर निकलना मुमकिन नहीं, मिसरा बदलना होगा
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मुतलाशी कब था हुस्न के अफ़्सूँ का 'राज़' मैं
बुलबुल मिली जो बाग़ में तो दिल लगा लिया //८
आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब. आपकी इस्लाह का बहुत बहुत शुक्रिया. मगर मेरा नम्र निवेदन है कि जब मिसरे में तनाफ़ुर निकलना मुमकिन नहीं हो, तब उसको रखने की इजाज़त हो. ऐसा हम कई उदाहरणों में पाते हैं. अब 'दिल लगाने' को, जो शायरों के लिए बड़ी आम सी बात है, किसी और पदावलि से कैसे बदला जा सकता है?
सादर.
'माथे पे उसने अपने सारा घर उठा लिया'
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आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब. आपकी इस्लाह का बहुत बहुत शुक्रिया. मगर मेरा नम्र निवेदन है कि बिहार एवं अन्य पूर्वांचल राज्यों की हिंदी में माथा शब्द का अर्थ सर भी है, माथे में दर्द हो रहा है, माथा पिरा रहा है, माथे पे सारे घर का बोझ है, माथा ठनक गया, इत्यादि. कृपया देखें:
https://hi.wiktionary.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A5%E0%A4%BE
और यह भी कि माथे पे घर उठाने का अर्थ सचमुच में अपने शिराग्र पे किसी चीज़ को धारण कर लेना नहीं है बल्कि अपने व्यवहार से यह प्रदर्शित करना है कि अपने मन-मस्तिष्क पे उसका बोझ ले लिया गया है.
कृपया हिंदी व्यंगकार श्री कन्हैया लाल नंदन जी का अपनी पुस्तक "श्रेष्ठ व्यंग कथाएँ" में यह प्रयोग देखें: "परेशान-परेशान आज घर लौटा तो पत्नी दर्द से कराह रही थी. सारा घर उसने माथे पे उठा रखा था."
सादर
जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'माथे पे उसने अपने सारा घर उठा लिया'
इस मिसरे पर जनाब लक्ष्मण धामी जी से सहमत हूँ,क्योंकि "माथा" शब्द का अर्थ है 'पेशानी','जबीं', और मुहावरा है 'घर सर पर उठाना' उम्मीद है आप समझ गए होंगे ।
मक़्ते के सानी मिसरे में तनाफ़ुर निकलना मुमकिन नहीं,मिसरा बदलना होगा ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब, ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया. हमारी अपनी बोलचाल की भाषा में हम 'माथे पे घर उठाना' बोलते हैं, इसलिए ये मिसरा लिया. बाक़ी जनाब समर कबीर साहब की इस्लाह से बात स्पष्ट होगी. सादर.
आदरणीय समर कबीर साहब, मुझे मालूम है कि इस ग़ज़ल के मक़ते में ऐब-ए-तनाफ़ुर है-
मुतलाशी कब था हुस्न के अफ़्सूँ का 'राज़' मैं
बुलबुल मिली जो बाग़ में तो दिल लगा लिया //८
मगर मैं बिना शेर बदले इसे किसी तरह दूर नहीं कर पाया, आपकी इस्लाह का इंतज़ार रहेगा. सादर
आ. भाई राजनवादवी जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई । लेकिन पहले शेर का दूसरा मिसरा उचित प्रतीत नहीं हो रहा । सर पर उठाना और माथे लगाना " के परिप्रेक्ष में सोचकर देखियेगा । शेष विद्वजन इस पर राय देंगे ।
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