बह्र : 221 1221 1221 122
वो ज़हर का प्याला है, उठाना ही नहीं था
दुनिया की तरफ़ आपको जाना ही नहीं था
कानों में यहाँ रूई सभी बैठे हैं रख के
ऐसे में तुम्हें शोर मचाना ही नहीं था
खेतों में लहू देख के करते हो शिकायत
हथियार ज़मीनों में उगाना ही नहीं था
ये कौन जगह है कि जहाँ होश में सब हैं
हम रिन्द हैं हमको यहाँ लाना ही नहीं था
ताउम्र उसी शहर में ही भटका किया मैं
रहने को जहाँ कोई ठिकाना ही नहीं था
ऐसे में भला क़द्र मेरी करता वो कैसे
मैं उसका दिवाना हूँ बताना ही नहीं था
ये जीस्त वफ़ादार नहीं, जान गए थे
फिर इससे तुम्हें दिल को लगाना ही नहीं था
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत-बहुत शुक्रिया सर। संशोधित कर दिया है। हार्दिक आभार। सादर।
' ज़िन्दगी है बेवफ़ा जब जान गए थे
फिर बेवफ़ा से दिल को लगाना ही नहीं था'
इस शैर को यूँ किया जा सकता है:-
'ये ज़ीस्त वफ़ादार नहीं,जान गए थे
फिर इससे तुम्हें दिल को लगाना ही नहीं था'
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय मोहम्मद अनीस शेख़ जी. हार्दिक आभार. सादर.
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय सुशील सरना जी. हृदय से आभारी हूँ. सादर.
अच्छी ग़ज़ल हुई है महेन्द्र कुमार जी मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए
ग़ज़ल में आपकी उपस्थिति और प्रतिक्रिया का हृदय से आभारी हूँ. बहुत-बहुत शुक्रिया. सादर.
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय मोहन बेगोवाल जी. हृदय से आभारी हूँ. सादर.
सादर आदाब आदरणीय समर कबीर सर. ग़ज़ल में आपकी उपस्थिति और इस्लाह का हृदय से आभारी हूँ. आप द्वारा सुझाए गए दोनों मिसरे मुझे स्वीकार्य हैं. बस एक जिज्ञासा थी कि आख़िरी वाले शेर को किसी दूसरे तरीके से कहने की कोशिश की जाए या इसे हटा ही दिया जाए क्योंकि जहाँ तक मैं समझ पा रहा हूँ शायद "ज़िन्दगी" शब्द के कारण ऊला मिसरे में और "बेवफ़ा" शब्द के कारण सानी मिसरे में गेयता बाधित हो रही है. आपके प्रत्युत्तर के बाद एक साथ ग़ज़ल संशोधित करता हूँ. आपका बहुत-बहुत शुक्रिया. सादर.
वो ज़हर का प्याला है, उठाना ही नहीं था
दुनिया की तरफ़ आपको जाना ही नहीं था
कानों में यहाँ रूई सभी बैठे हैं रख के
ऐसे में तुम्हें शोर मचाना ही नहीं था ... वाह बहुत सुंदर आदरणीय.... हार्दिक बधाई
जनाब महेन्द्र कुमार साहब, आदाब. सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे मुबारकबाद पेश करता हूँ. सादर.
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